मेनका गांधी :हार के बाद आगे क्या ?

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*राज खन्ना
गांधी परिवार के एक हिस्से को 2024 के चुनाव ने संजीवनी दी तो दूसरे हिस्से के निराशा हाथ लगी। रायबरेली का परिवार का किला और मजबूत हो गया। अमेठी वापस मिल गई। 2019 की तुलना में पार्टी की सीटें भी बढ़ गईं। भाजपा अकेले बूते सरकार नहीं बना पा रही। जाहिर है कि सोनिया – राहुल – प्रियंका खुश हैं और उनके हौसले बुलंद हैं। लेकिन बाजू की सीट सुल्तानपुर में मेनका गांधी पराजित हो गईं। वरुण गांधी को पार्टी ने टिकट से वंचित कर लड़ने का मौका ही नहीं दिया। मोदी – शाह की भाजपा से वरुण – मेनका अरसे से तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं। वरुण की चुप्पी और मेनका की हार के बाद आगे भाजपा से उनके रिश्तों पर भी सवाल उठने लगे हैं।

टिकट कटा ; वरुण रहे चुनाव से दूर
असलियत में गांधी परिवार के भाजपाई खेमे के लिए टिकट वितरण के समय से ही 2024 का चुनाव उत्साहित करने वाला नहीं रहा। नेतृत्व से मतभेदों के चलते वरुण गांधी ने पीलीभीत से टिकट गंवा दिया। मेनका गांधी की सुल्तानपुर से उम्मीदवारी के सवाल पर भी अरसे तक असमंजस बना रहा। काफी विलंब से पार्टी ने उन्हें दूसरी बार सुल्तानपुर से लड़ाने का फैसला किया। टिकट कटने के बाद से वरुण ने खामोशी अख्तियार कर ली। पूरे चुनाव में वे कहीं नहीं निकले। सुल्तानपुर में छठवें चरण में 25 मई को मतदान हुआ था। प्रचार के आखिरी दिन 23 मई को वरुण ने अपनी मां के समर्थन में सुल्तानपुर में कुछ नुक्कड़ सभाओं को संबोधित किया था।

मोदी के नाम से परहेज
1977 में संजय गांधी अमेठी से अपना पहला चुनाव लड़ा था। 2010 तक अमेठी , सुल्तानपुर जिले का हिस्सा थी। स्वाभाविक तौर पर गांधी परिवार के सदस्यों की सुल्तानपुर जिला मुख्यालय पर किसी न किसी तौर पर सक्रियता बनी रहती थी। 2009 में वरुण गांधी पीलीभीत से अपना पहला चुनाव जीते थे। लेकिन वहां की जीत के बाद ही उन्होंने सुल्तानपुर में दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी थी। वे सुल्तानपुर को अपने पिता की कर्मभूमि बताते थे। 2014 के चुनाव में वे पीलीभीत छोड़ सुल्तानपुर से चुनाव लड़े। भाजपा में मोदी के दौर का यह पहला चुनाव था। वरुण भाजपा उमीदवार थे। जीते भी थे। लेकिन प्रचार से लेकर अगले पांच साल में, सुल्तानपुर के अपने संसदीय कार्यकाल में वरुण ने मंचों से मोदी के नाम से परहेज रखा था।

मोदी -2 मंत्रिमंडल में मेनका को नहीं मिली थी जगह
2019 में वरुण और मेनका ने अपनी सीटों की अदला -बदली की। वरुण पीलीभीत से और मेनका सुल्तानपुर से सांसद चुनी गईं। लेकिन मोदी -2 में मेनका को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलीं। इस चुनाव के कुछ दिनों बाद से ही भाजपा नेतृत्व से मेनका की दूरी की चर्चा होने लगी थी। लेकिन मेनका ने वरुण के विपरीत संयम रखा। उन्होंने पूरी तौर पर खुद को अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की समस्याओं के निराकरण और वहां की विकास जरूरतों पर केंद्रित कर दिया। इस सिलसिले को उन्होंने लगातार पांच साल तक कायम रखा। महीने में दो बार वे सड़क मार्ग से दिल्ली से सुल्तानपुर पहुंचती रहीं। हर बार तीन दिन के प्रवास में बिना किसी सिफारिश और भेदभाव के वे लेखपाल -थानेदार से लेकर बड़े अधिकारियों तक लोगों की पैरवी करती रहीं। लखनऊ – दिल्ली की सरकारों से जिले के लिए कुछ हासिल करने की कोशिशों के साथ ही कस्बों -गांवों में उनके दौरे और चौपालों का नियमित क्रम चला।

मेनका के काम पर विपक्ष की सोशल इंजीनियरिंग भारी
मेनका का राजनीतिक कद कितना भी बड़ा हो लेकिन पार्टी ने उन्हें सुल्तानपुर तक सीमित रखा। मेनका को अपने निर्वाचन क्षेत्र में पांच साल किए काम के कारण वोटरों का एक बार फिर समर्थन पाने का काफी भरोसा था। लगभग चालीस दिन के उनके सघन प्रचार में मोदी के नाम से ज्यादा क्षेत्र के लिए मेनका के काम की खासी चर्चा थी। माना जाता है कि सुल्तानपुर में उन जैसी सक्रियता कोई सांसद प्रदर्शित नहीं कर पाया। लेकिन नतीजों ने बताया कि चुनाव जीतने के लिए जनप्रतिनिधि के प्रयास पर्याप्त नहीं होते। जातियों की सोशल इंजीनियरिंग ने मेनका का रास्ता रोक दिया। सपा ने पहले अंबेडकरनगर निवासी भीम निषाद को उम्मीदवार बनाया। फिर उन्हें हल्का मानते हुए निषाद बिरादरी के एक बड़े नाम गोरखपुर निवासी पूर्व मंत्री राम भुआल निषाद को मैदान में उतारा। बसपा ने कुर्मी बिरादरी के उदराज वर्मा को मौका दिया। निषाद और कुर्मी बिरादरी का अब तक भाजपा अच्छा समर्थन हासिल करती रही है। लेकिन नतीजों ने बताया कि भाजपा के इस वोट बैंक में सेंधमारी ने मेनका की हार की पटकथा लिख दी। सपा के हक में मुस्लिमों -यादवों के मजबूत समर्थन के साथ ही अन्य पिछड़ों और दलितों के जुड़ाव ने सुल्तानपुर लोकसभा सीट पर सपा को पहली बार जीत दिलाई। उसके प्रत्याशी राम भुआल निषाद को 4,44,330, मेनका गांधी को 4,01,156 और बसपा के उदराज वर्मा को 1,63,025 वोट मिले।

आठ बार की सांसद ; नौंवें मौके पर हार
1980 में पति संजय गांधी के निधन के कुछ दिनों बाद मेनका के अपनी सास इंदिरा गांधी से रिश्ते बिगड़ने लगे थे। 1982 में मेनका ने अमेठी के दौरे शुरू किए। अपने दिवंगत पति की राजनीतिक विरासत हासिल करने के लिए 1984 में उन्होंने जेठ राजीव गांधी को अमेठी में असफल चुनौती दी थी। 1989 से वे पीलीभीत से जुड़ीं। 1996,98,99,2004 के चुनाव वे वहां से जीतीं। 2009 में पीलीभीत सीट उन्होंने वरुण के लिए छोड़ी और खुद आंवला से चुनी गईं। 2014 में एक बार फिर उनकी पीलीभीत वापसी हुई तो 2019 में सुल्तानपुर से उन्होंने जीत दर्ज की। वे आठ बार लोकसभा के लिए चुनी गईं।

वोटरों ने किया निराश ; नेतृत्व से भी दूर
राजनीतिक में हार – जीत लगी रहती है। लेकिन मेनका की इस बार की हार ऐसे मौके पर हुई है , जब खासतौर पर उनके पुत्र वरुण भाजपा में ताल – मेल नहीं बिठा पा रहे हैं। वरुण का टिकट कटने की पीड़ा मेनका को काफी रही। प्रचार के दौरान इससे जुड़े सवालों पर उनके जवाबों में यह जाहिर भी होती रही। उन्होंने कुछ मौकों पर यह भी कहा कि पार्टी में सिर्फ एम.पी. ही नहीं होते। चुनाव बाद देखा जाएगा। अब मेनका भी एम.पी. नहीं हैं। वरुण जो कभी भाजपा में महामंत्री,बंगाल के प्रभारी और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हुआ करते थे , अब पार्टी के सामान्य सदस्य हैं। चुनाव से वे दूर रहे। पार्टी भी उनसे दूर नजर आ रही है। आगे क्या कुछ बदलेगा ? जहां तक मेनका का सवाल है , उनके संघ से अच्छे रिश्ते हैं। मुमकिन है कि 2024 के जनादेश की सीख में पार्टी में आगे कुछ बदलाव हो। बेशक वरुण का राजनीतिक पुनर्वास मेनका की प्राथमिकता रहेगी। लेकिन फिलहाल विकल्प सीमित हैं। मेनका माकूल समय की प्रतीक्षा कर सकती हैं।

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