लोकतंत्र: अराजकता का एक सुखद स्वरूप

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महेंद्र शुक्ल
हम दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र है , लोकतंत्र राज्य का सबसे सुंदर स्वरूप होता है, पर मेरा अपना विचार है,ये लोकतंत्र की अधिकता अघोषित तानाशाही को जन्म देती है जो बहुसंख्यक समाज द्वारा राष्ट्रीय मूल्यों और अपने अस्तित्व की सुरक्षा के भाव के कारण समर्थित होती हैं और ये मजबूरी होती हैं उसकी

हमारे लिए जो कि लोकतंत्र की तारीफ़ सुनने के अभ्यस्त हैं, ये सुनना कि डेमोक्रेसी, एरिस्टोक्रेसी और ऑलिगार्की के बाद तीसरे दर्जे की शासन व्यवस्था है, थोड़ा अजीब लगता है.

लोकतंत्र “अराजकता का एक सुखद रूप है,” और ये भी अपने विरोधाभास की वजह से दूसरी शासन व्यवस्थाओं की तरह ख़त्म हो जाता है.

जिस तरह ऑलिगार्की(चंद लोगो का होल्ड या प्रभुसता,) एरिस्टोक्रेसी से निकलती है. डेमोक्रेसी (लोगों का शासन) से निरंकुशता निकलती हैं!

इसकी वजह ये है कि जब लोग संपत्ति हासिल करने के लिए एक अंधी दौड़ में लग जाते हैं तो समाज में समानता की एक माँग उठने लगती है, समानता की एक भूख पैदा होता है. और इसी तरह तृप्त न होने वाली आज़ादी की प्यास एक निरंकुशता की मांग पैदा करती है.

ये एक ऐसा विचार है जिसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल है. बात ये है कि जब लोगों को आज़ादी मिलती है तो वे और ज़्यादा आज़ादी चाहते हैं.

अगर हर कीमत पर आज़ादी पाना लक्ष्य है तो आज़ादी की अधिकता गुटों और मत-भिन्नता को जन्म देती है. इनमें से ज़्यादातर तत्वों को संकीर्ण हितों की वजह से कुछ दिखाई नहीं देता. वे तुष्टिकरण को जन्म देते है बहु संख्यको के विरुद्ध!

ऐसे में जो भी नेता बनना चाहेगा है, उसे इन गुटों (अल्पसंख्यकों) को संतुष्ट करना पड़ेगा. अल्पसंख्यकों की भावनाओं का ध्यान रखना पड़ता है और ये किसी भी धार्मिक तानाशाह के फलने-फूलने के लिए मुफीद स्थिति है. क्योंकि वह लोकतंत्र पर नियंत्रण करने के लिए जनता को भ्रमित करता है मु्ख्य धारा जो राष्ट्र की हो से अलग कर अपना वोट बैंक बनाने को

यही नहीं, असीम आज़ादी एक तरह से उन्मादी भीड़ को जन्म देती है. ऐसा होने पर लोगों का शासक में भरोसा कम होता है. तुष्टिकरण में पले लोग उसके मिलरहेअनैतिक लाभ के आदि हो जाते है. और उस विचार को अपना समर्थन देते हैं जो सत्ता और राष्ट्र की नीतियो के विरुद्ध हो धार्मिक उन्माद उनके डरों को पालता – पोसता है और हर उस विचार धारा जो मुख्य धारा से विलग हो को उनके रक्षक के रूप में पेश करता है!

इस तरह के नेता “सामान्यता बहुसंख्यकवर्ग से आते हैं लेकिन तुष्टिकरण का लाभ दे कर अल्पसंख्यक समाज से तालमेल बनाकर रखते हैं. वह एक आज्ञाकारी भीड़ पर अधिकार जमा लेते हैं और उस भीड़ द्वारा धनी (व्यापारी) लोगों को भ्रष्टाचारी कहने लगते हैं.”रोबिन हुड टाइप लोगो जो असल में तुष्टीकरण की खैती से उपजे माफिया होते हैं का महिमा मंडन करते हैं राजनीत की मुख्यधारा में उनका प्रवेश और प्रयोग होने लगता है ,

“आख़िरकार वह बहुसंख्यक वर्ग जो अकेले खड़े हो जाता हैं भ्रमित, विचलित और अपने में डूबी जनता को अनगिनत विकल्पों में से किसी एक को चुनने और लोकतंत्र की असुरक्षाओं से आज़ादी के लिऐ फड़ फाड़ा उठता है!

ऐसे में एक ऐसे नेतृत्व की तलाश करता है !जो कि अस्पष्ट सुखों से दूर हो क्योंकि ऐसा नेतृत्व भ्रष्ट नहीं होगा और उच्च आदर्शों की शिक्षा की वजह से वह अच्छे और बुद्धिमत्तापूर्ण फ़ैसले लेगा और धीरे धीरे बहुसंख्यक नेता केंद्रित हो जाता है जो मुख्य धारा का संरक्षक हो राष्ट्रवादी जड़ों को मजबूत कर रहा हो इस तरह बड़ा वर्ग लोकतंत्र से विमुख हो जाता हैं!

बहुसंख्यक समाज और सत्ता पर अंकुश के लिए लोकतंत्र का मेक अप किए तानाशाही जो मुख्य धारा के साथ हो को हर क़ीमत पर पसंद करने लगाता है लोकतांत्रिक तानाशाही सुरक्षा के लिए जन्म लेती है! क्योंकि जब हम होगे तो ही लोकतंत्र या राज्य तंत्र को महसूस कर सकेगे जब होगे ही नहीं तो फीर कोई भी तंत्र हो उसका अनुभव हम नही कर सकते चुकी हम इतिहास हो चुके होते हैं!

ये हालत आज पूरे यूरोप के है लोकतंत्र के सबसे बड़े हिमायती देशों में असुरक्षा घर कर चुकी। उनके द्वार जिनको उन्होने शरण दी!
लोकतंत्र एक भावना है। और ऐसे में हमारे शास्त्र और महान दार्शनिक प्लेटो की यही मुख्य बात याद रखे – “उचित, *विवेकपूर्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण फ़ैसले करें मूल्यों का राज हो न कि भावनाओं का.” और किसी भी राष्ट्र के मूल्य उसकी मान्यताओं संस्कृति में होते है! उसका संरक्षण ही असली लोकतंत्र है

*महेंद्र शुक्ल

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