हिन्दी के सुपरिचित आलोचक डॉ नामवर सिंह की याद में

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अनामी शरण बबल

नामवर के नाम की महिमा

हिन्दी के  विख्यात साहित्यकार आलोचक  डा. नामवर सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। पार्थिव शरीर आज़ शाम तक पंचतत्व में विलीन भी हो  जाएगा, मगर हिन्दी के इस सुपर स्टार लेखक साहित्यकार की तूती कम नही होगी। नामवर अपने नाम से ज्यादा कुख्यात विवादों में घिरे रहते थे। नामवर जी हिन्दी के संभवतः पहले लेखक आलोचक हैं जो पिछले दो दशक से लेखन की बजाय जो बोला कहा वही आलोचना की कसौटी पर खरा और सही माना गया। हिन्दी में नामवर सिंह के नाम की ऐसी धूम कि हिन्दी में कोई भी कार्यक्रम हो कोई योजना हो या किसी खंड महाखंड की रूपरेखा हो, सब नामवर की राय सलाह के बिना अपूर्ण सा लगता है। कद से ज्यादा बड़ा कद हो या अत्यधिक मान्यता दे देना भी एक विवादास्पद प्रसंग है। जिसपर टिप्पणी करना व्यर्थ है। मगर यह  आलोचना की तरह ही सही और कट्टु सत्य है कि उनके जितने प्रशंसक हैं, उससे कही अधिक निंदक आलोचक और विरोधी आज भी सक्रिय हैं और हमेशा रहेंगे। शायद नामवर सिंह की यही सबसे बड़ी ताकत भी रही है कि वे अपने निंदकों आलोचकों को भी जीवन भर एक चुनौती की तरह ही लेते रहे। मगर, नामवर सिंह भी एक गुट जिसे महागुट भी कहें तो कोई हर्ज नही होगा। एक समर्थक लेखकों का दल बल साथ रहता था। वे अपनी टोली के लेखन पर सहानुभूति भी रखते थे। आलोचना में भी मित्रमंडल संस्कार को पुष्पित किया। तो यह भी सच है कि लेखकों की अपार भीड़ उनकी झलक पाने या अपनी किताब पर दो लाईन की टिप्पणी पाने के लिए लालयित रहता था। लगता था जैसे नामवर जी कि एक टिप्पणी उसे अमर या कालजयी बना दे। एक तरफ नाम काम  की महिमा गौरव ग्लैमर और चकाचौंध छवि बहुतों को नागवार लगता था। एक बड़े या जिसे विरोधी वर्ग का मानना है कि लेखक समाज को नामवर सिंह के काम से हिन्दी का भला कम अहित ज्यादा हुआ है। समाज का यह लोकचरित्र होता है कि किसी के नही रहने पर महिमा मंडन के साथ छवि हनन करने से बाज नहीं आते।
: हिन्दी के इस विशिष्ट प्रोसेसर, लेखक, पत्रकार और संपादक डॉक्टर नामवर सिंह के साथ कुछ प्रसंग अपने संग भी ऐसे हैं जिन्हें आज़ उनके उपर लिखना ज़रूरी लगा। नामवर जी को देखने सुनने के कोई डेढ़ दो दर्जन मौके आएं, मगर दुआ सलाम नमस्कार से अपन रिश्ता कभी आगे नहीं बढ़ा। एक खांटी पत्रकार होने के चलते रिश्ता तोडने या बिगाड़ने का शौक कभी नहीं रहा, मगर संबंधों को मजबूत करने के लिए किसी के चरणों में लिपटने का भी कभी न शौक रहा है और ना ही आत्मसमर्पण करने का पागलपन भी नहीं रहा।  नामवर जी से मेरी आखिरी मुलाकात भी कोई 15-16 साल पहले की है। पर इस घटना के उल्लेख से ज्यादा जरुरी यह बताना है कि मैं नामवर सिंह को कब से जानता हूं? बिहार के एक छोटे से कस्बा देव में रहते हुए मुझे 1981 तक नामवर सिंह के नाम का पता नहीं था। नामवर सिंह जी के नाम को कब कैसे सुना या जाना इसका भी कोई आधिकारिक संदर्भ याद नहीं है। पर भारत के सबसे चकमक यूनिवर्सिटी जेएनयू के हिन्दी प्रोसेसर और लेखक के रूप में जानने लगा था। दिल्ली में कोई मित्रमंडली नही होने के कारण मैं नामवर सिंह की नामवरी से अनजान था। हालांकि पापाजी की रुचि के चलते घर में हंस रविवार दिनमान धर्मयुग सारिका गंगा अवकाश, साप्ताहिक हिन्दुस्तान नंदन पराग कादम्बिनी नवनीत जैसी पत्रिकाएं नियमित रूप से आती थी, मगर इसको पढ़ने से अधिक अपने कमरे में सजाकर रखने का शौक ज्यादा था। हां 1983-84 में गया के लेखकों से परिचित होने के बाद प्रवीण परिमल सुरंजन प्यासा रुपक सरीखे दोस्तों और दिल्ली के अखिल अनूप से संपर्क गहराने के बाद नामवर सिंह को लेकर साहित्य पर बातें होने लगी।  बनारसी रंग रुप में जीवन भर रंगे पुते नामवर जी दिल्ली वासी होकर भी जीवन भर छोरा गंगा किनारे वाला ही गंगा की तरह प्रवाहमान बने रहे। 1987 में नामवर जी को करीब से देखने सुनने का मौका तब आया,जब भारतीय जनसंचार संस्थान के पहले हिन्दी पत्रकारिता स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में दाखिला मिला, और किसी दिन हमारे विभागाध्यक्ष डॅाक्टर रामजी लाल जांगिड़ ने बताया कि कल क्लास लेने जेएनयू से नामवर सिंह आएंगे। हालांकि जेएनयू के पड़ोस ने अपने इंस्टीट्यूट कैम्पस के होने से जेएनयू का ग्लैमर मिट गया था। जेएनयू के मीनी जंगल नुमा वातावरण और उसके पूर्वांचल छात्रावास का डीटीसी बस स्टॉप हम लोगों के दिल्ली घूमने के लिए बस पकड़ने का एकल अड्डा था। देर रात तक जेएनयू में घुमना-घुमाना और अलग अलग छवि मुद्रा में लडके लडकियों को देखना भी रोमांचक मैच देखने सा होता। इन हालातो और माहौल में मन के भीतर के देहाती गंवारपन की झिझक पर शहरी हवा की नयी  कहानी को जानने सुनने का मौका सामने था।  हां तो नामवर सिंह से पढ़ने के इस नायाब मौके को सामने देख कर मन खिल उठा। करीब डेढ़ घंटे के सरस मोहक सरल और  सटीक सारगर्भित संवाद के बीच पूरा क्लास मंत्रमुग्ध सा रहा। नामवर जी की छायावाद और दूसरी परम्परा की खोज को पढा था,पर सच्चाई यह है कि समझा कम ही था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सबसे चर्चित शिष्यों में एक रहे डॉ नामवर ने कभी बतौर एक स्टूडेंट अपने गुरुदेव से एक सवाल पूछा था जिसका उतर उस समय हजारी प्रसाद द्विवेदी जी नही दिए थे।  सवाल पूछने के लिए आरंभ से ही बदनाम रहईद मै क्लास खत्म होते ही वही सवाल नामवर सिंह जी से पूछा डाला कि कल एक छात्र के रूप में जो आपका सवाल था उसका उतर प्रोफेसर नामवर सिंह जी का क्या होगा? हालांकि कोई जवाब देने की बजाय मेरे पास आकर मेरा नाम पूछा और र नाम सुनते ही ठठाकर खिलखिला उठे। यह परिचय का पहला सूत्र था। मेरे कंधे पर हाथ फेरकर स्नेह जताया। यह संस्मरण लिखते समय जब आज मैं अपने कंधे को छूकर देख रहा हूं तो कोई 32 साल पहले के उस स्नेहिल स्पर्श को जीवंत सा महसूस कर रहा हूं।
: दिल्ली में रहते हुए उनसे करीब होने की लालसा मन मेह कभी नही जागी। हर दो चार माह में यदा कदा मुलाकात होती रही। यों कहें कि चेहरे से परिचित थे। जब भी मिलता तो उनके चेहरे पर आत्मीय मुस्कान आ जाती थी।  इसी क्रम में बात 2001 की है, जब फोन करके विख्यात लेखक पंकज बिष्ट ने मुझे यह बताया कि शैलेश मटियानी जी का दिल्ली के पागलखाने में गुमनाम सी मौत हो गयी है।  इसकी सूचना मिलते ही मैंने कुछ लेखकों से बातचीत करके एक रिपोर्ट बनाने की पहल की और फट से नामवर जी को फोन करके बताया कि किस तरह किस प्रकार शैलेश मटियानी की मौत हो चुकी है और इस पर आप कोई टिप्पणी करें। मेरी बात सुनते ही हिंदी के सबसे बड़े वरिष्ठ आलोचक नामवर जी ने यह कहा इस समय मैं दूरदर्शन पर समाचार देख रहा हूं।  और यह कहते हुए नामवर जी ने फोन काट दी। एकाएक फोन कटने से मै चौंका और तत्काल दोबारा फोन कर डाला। मगर इस बार फोन उठाते ही उन्होंने गरम लहजे में कहा अभी  बताया था न कि मैं इस समय दूरदर्शन पर समाचार देख रहा हूं। यह कहकर एक बार फिर उन्होंने फोन रख दिया। 
हालांकि शैलेश मटियानी जी को मैंने भी बहुत अधिक नहीं पढ़ा और जानता था, पर एक इतने बड़े नामी लेखक की मौत पर नामवर सिंह जी की यह संवेदनहीनता और  भावहीन बेरूखी अटपटा सा लगा।  औरों से बातचीत करके ख़बर बनाने की बजाय मैंने तत्काल नामवर सिंह की टिप्पणी पर ही एक न्यूज बना दी। जिसका मजमून इस तरह का रखा। ।। संघर्षों के पर्याय रहे संघर्ष जीवी शैलेश मटियानी की कल रात दिल्ली के एक पागलखाने में गुमनाम सी मौत हो गयी है, जिसकी ख़बर जगजाहिर होते ही  लेखकों पाठकों का एक बडा वर्ग शोकाकुल होगा, मगर  हिंदी के सबसे बड़े आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने यह कहते हुए टिप्पणी करने से इंकार कर दिया कि मैं इस समय दूरदर्शन पर समाचार देख रहा हूं।। । राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित इस समाचार के बाद लेखक समुदाय में बडी तीखी प्रतिक्रिया हुई। पंकजा बिष्ट ने अपनी पत्रिका समयांतर में पूरी खबर डाल दी। और भी दर्जनों लेखकों ने इस खबर पर लेख लिख। जिसमें रांची के श्रवण कुमार गोस्वामी का लेख काफी चर्चित था, जिसे मैं देख नही सका। इस प्रसंग के कोई 13 साल बाद जब रांची में जब रांची एक्सप्रेस के बतौर संपादक काम करने और रहने का मौका मिला तो वहां के वरिष्ठ लेखक अशोक प्रियदर्शी जी से दफ्तर में भेंट हुई तब यह बताने पर वे चहक उठे कि नामवर जी के खिलाफ आपकी ही वह खबर थी जिसके   चलते यहां के साहित्यकारों ने भी काफी निंदा की थी। 
: यह घटना भी आईं गई हो जाती, तभी 2002 में नामवर सिंह जी राष्ट्रीय सहारा में बतौर प्रधान संपादक बनकर  आए। कई माह तक मुलाकात नहीं हुई। मेरे कई मित्रों ने चेताया भी कि  अब नामवर बाबू आ गए हैं तो अनामी तेरी छुट्टी पक्की है। मैने इन खबरों को किनारा करते हुए कहा कि वे मेरी सराहना करेंगे भाई। मेरी निष्पक्षता नीडरता को पसंद करेंगे। बिना मुलाकात कई माह तक  पहले की तरह काम जारी रहा। इसी दौरान सहारा टीवी के बाद सहारा की साप्ताहिक पत्रिका की योजना बनी। किसी एक दिन नोएडा मुख्यालय से फरमान आया कि नयी पत्रिका की योजना पर बात विचार में शामिल होने के लिए रिपोर्टिंग टीम को रात में नोएडा पहुंचना है। मेरा घर पास में होने के चलते देर रात भी कोई परेशानी का सबब नहीं बनता।  वीकली पेपर कैसा हो इस पर किसी ने रविवार किसी ने माया किसी ने दिनमान किसी ने धर्मयुग किसी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान तो किसी ने चौथी दुनिया के स्वरुप को साकार करने पर जोर दिया। दर्जन भर सलाह मशविरा के बाद बोलने के लिए बदनाम मैं भला क्यों ख़ामोश रहता? कुछ बोलने के लिए जब मै खडा हुआ तो सहारा के ढेरों सहकर्मी खिलखिला पड़े। अरे बबल जी आ गए भाई। खैर बिना औपचारिक संबोधन के मै चालू हो गया तब नामवर जी ने मुझे रोका। अपना परिचय देकर बोलिए। जब मैं अपने नाम का उल्लेख कर आगे बढ़ा ही था कि एक बार फिर नामवर जी बोले, अरे अनामी शरण बबल तुम हो। इस मीटिंग के बाद मिलना। इसके बाद मै फिर चालू हो गया, कि एक नयी    वीकली के आरंभ होने से पहले पहले की और समकालीन पत्रिकाओं पर बात करने का यह सिलसिला तो बेहतर है। मगर इससे सबसे अधिक खतरा  यह होता और रहता है कि 48 पेजी सहारा वीकली को देखते हुए कही पर पाठकों को इसमें रविवार, दिनमान, कहीं धर्मयुग कहीं माया तो कहीं चौथी दुनिया नजर आ जाएगा मगर समग्र तौर पर सहारा कईब कोई पहचान सामने नहीं प्रकट होगी। हमलोग एक खिचड़ी वीकली के लिए बैठे हैं तो सबकी चर्चा जायज है। नहीं तो एक नये बेहतरीन और सबसे अलग वईकलईब के लिए टीम को इससे हटकर सोचने की जरूरत है। जब मैंने अपनी बात ख़त्म कर दी तो हमारे प्रधान संपादक डा. नामवर सिंह जी ने ताली बजाकर मेरी बातों का समर्थन किया और इसे सबसे महत्वपूर्ण सलाह कहकर दोबारा मीटिंग करने की बात कहकर रात 12 बजे के आसपास सभा विसर्जित कर दी। तब मैं उनके समक्ष पेश हुआ। मेरा हाथ पकड़ कर वे बोले तुमने बहुत गालियां मुझे खिलवाई अनामी बहुत लोगों ने भला बुरा कहा। तुमने तो मेरे खिलाफ लोगों को खड़ा होने का मौका ही दे दिया।  मैंने पूरी विनम्रता से कहा कि मेरे लिए भी यह सदमा सा था कि एक दिवंगत लेखक के बारे में आपने कुछ नहीं कहा। मैंने तो एक खबर बना दी पर इसको लोगो ने किस तरह लिया या आप तक निंदा पहुंची। यह तो मैं जानता नहीं। आप ही बता रहे हैं।  मेरे कहने पर वे ठठाकर हंस पड़े। कोई बात नहीं, मेरे मन में तुम्हें देखने की इच्छा थी। कई बार तुमसे मिला पर नाम नहीं जानता था। मैंने फ़ौरन 1987 में भारतीय जनसंचार संस्थान के हिंदी क्लास की याद दिलाई। तो वे फिर खिलखिला पड़े। ओह। अनामी शरण बबल। रामजी लाल जांगिड़ के स्टूडेंट्स रहे हो। उनकी बातों को तुरंत काटा केवल जांगिड़ साहब नहीं सर आपका भी स्टूडेंट्स रहा हूं।  इस पर मेरी पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा इसीलिए अपने गुरु की तुमने मलहम पट्टी कर करा दी। उनके सामने जब मैंने अपने हाथ जोड दिए तो मेरे करीब आते हुए कहा शाबाश अनामी। एक पत्रकार के लिए खबर प्रमुख होता है और तुमने उसको प्रमुखता दी। यही तुम्हारा कर्तव्य था, जिसका तुमने पालन किया।  राष्ट्रीय सहारा में रहते हुए उनसे दो तीन बार मिला। और सहारा छोड़ने के बाद भी दो एक मुलाकात हुई। लंबी बीमारी के बाद कल देर रात हिन्दी के सुपर स्टार लेखक साहित्यकार आलोचक डा. नामवर का ना रहना एक युग के अंत सा तो है ही। हिंदी के समर्पित लेखक ने साहित्य आलोचना शोध और अध्यापन में अनूठी मिसाल कायम की है। मैं खुद को आज़ सौभाग्यशाली मान रहा हूं कि नामवर सिंह जी से यदा कदा ही सही पर कुछ पल के साथ का सुखद क्षण मेरे पास भी है। इनसे पढ़ने का भी मौका मिलना मेरे लिए दुर्लभ है। विनम्र श्रद्धांजलि प्रणाम ।।

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