इस बार विपक्षियों को अपनी एकता साबित करने की है अग्निपरीक्षा

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अनामी शरण बबल 

नयी दिल्ली। कोलकाता के ब्रिगेड मैदान पर मौजूद समूचे विपक्ष की एकता और हुंकार के साथ साथ विपक्षी एकता की अग्निपरीक्षा आरंभ हो  गयी है। सतारूढ़ एनडीए भाजपा गठबंधन के नेताओं और विपक्षियों के बीच जुबानी प्रहार बढ़ गयी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने अभी से ही  विपक्षी एकता और नेताओं पर स्वार्थसिद्धि का लाछंन लगाना आरंभ कर दिया है, तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के संचालन में बड़ी बड़ी बाते एकता के लिए त्याग करने सीटों के तालमेल के लिए जिद छोड़ने तथा चुनावी परिणाम के बाद प्रधानमंत्री पद के फैसले को छोड़ने की मंचीय घोषणा की गयी। इस तरह की राजनीति घोषणा करने वालों की घोषणा और हम सब साथ साथ पर चलने की एकता पर ही सवाल और संदेह गहराने लगा है।– साल 2019 में 17वीं लोकसभा चुनाव का नाद बज चुका है। इस बार के चुनावी समर में  संदेह अविश्वास असमंजस करप्शन और विपक्षी एकता की परीक्षा है। बिना किसी लहर के सतारूढ़ सरकार पिछले चुनाव में किए अपने वादों में ही घिरी है। जनता के बीच इनका जुबानी चमत्कार भी रंगहीन हो गया है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री के हमलावर अंदाज का तोड़ विपक्षी दलों के पास नहीं है।  राफेल विवाद की गूंज के बावजूद आम आदमी  जिसे मतदाता भी कहा जाता है के मन में  विपक्षी दलों के अलंबरदार नेताओं की एकता एक साथ रहने चलने एक दूसरे को बर्दाश्त करने या किसी एक को नेता स्वीकार का भरोसा नहीं है। यहीं अविश्वास इनका सबसे कमजोर पक्ष है। जिसे आजादी के 72 साल में  विपक्षी नेताओं ने कभी दूर करने की पहल नही की। स्वार्थसिद्धि के लिए राजनैतिक दलों के येन-केन प्रकारेण तोड फोड़ दल-बदल  पर तो ग्रंथ लिखा जा सकता है। मगर अभी केवल केंद्र सरकार के गठन के लिए विपक्षी बंदरबांट पर विहंगावलोकन करेंगे। जिसके मद्देनजर  इस बार फिर कोई बीस साल के बाद विपक्षी दलों को सतारूढ़ सरकार को चुनौती देने का संयोग बनता दिख रहा है।    हालांकि  आजादी के 72 साल में राजनीति  शतरंज की बिसात बदल गयी। 1947 से अगले पचास साल 1997 तक कांग्रेस विरोधी मोर्चे में भाजपा समेत सारे दल साथ साथ रहते थे,मगर 1997 में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन हुआ। जिसके जवाब में कांग्रेस की पहल पर कल तक  भाजपा के साथ गलबहियां करने वाले दल ही अब उनके खिलाफ खड़े हो गए हैं।  कभी कांग्रेस विरोध का मुख्य स्वर आज़ भाजपा विरोध में बदल गया है।—– कांग्रेस की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ और आपातकालीन जुलम के खिलाफ 1977 में जनता पार्टी की पहली सरकार मोरारजी देसाई ने बनाई। मगर बीच में ही किसान नेता चौधरी चरण सिंह ने भांजी मार दी।और ढाई साल में ही विपक्षी दलों की सरकार एकता के अभाव में गिर गयी। कभी हिटलर के नाम से विख्यात इंदिरा गांधी दोबारा प्रधानमंत्री बन गयी इस बीच 84 में श्री मती गांधी की हत्या के बाद उनके पायलट पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। इनकी सरकार में बोफोर्स तोप दलाली का आरोप लगा। कांग्रेसी वित्तमंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह बागी हो गए और विश्वनाथ प्रताप के साथ पूरा विपक्ष एकजुट हुआ और 1989 में फिर गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। थोडे ही माह के बाद तबके  समाजवादी नेता चंदशेखर बागी हो गए। और केवल चार माह तक पीएम बने। बगैर लोकसभा का सामना किए चंदशेखर सरकार 1991 में पराजित हो गयी। 1996 में एकबार फिर विपक्षी दलों की सरकार बनी। विपक्षी दलों की एकता में अनेकता का फिर  भयावह चेहरा परतटह हुआ। 1996 के बाद 1998 और 1999 में लोकसभा चुनाव से  तीन साल में तीन चुनाव से गुजरना पड़ा। इन तीन साल में देश को तीन प्रधानमंत्री ने चार सरकार दिए। भाजपा के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पहले 13 दिनों की और दोबारा 13 माह की सरकार बनी। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे एचडी देवेगौड़ा को एक्सीडेंटल पीएम बनने का मौका मिल। और अंत में इंद्र कुमार गुजराल को भी एक्सीडेंटल ही सही  कुछ माह तक प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य मिला। 1999 में एनडीए बहुमत में आईं और  13 माह और 13 दिनों की दो अभिशप्त सरकार के बाद पहली बार पांच साल  2004 तक प्रधानमंत्री पद पर रहे। आजादी के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की यह पहली गैर-कांग्रेसी बनी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। इसके बाद अगले 10 साल यूपीए की मनमोहन सिंह की सरकार बनी। और तभी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अच्छे दिन आएंगे का जुमला उछालते हुए एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री बने।—–  पिछले बीस सालों तक देश में सता की स्थिरता थीं। मगर एकबार फिर 2019 में विपक्षी दल की एकता की अग्निपरीक्षा है। साथ साथ रहने और एकता के चीरहरण की आशंका से लोग फिर आशंकित है। एक तरफ़ बसपा की मायावती हैं तो टीएमसी की ममता बनर्जी हैं। दोनों में पीएम बनने की छटपटाहट है।और दक्षिण भारत के नेतागण एकमत होने के बाद भी भावी रूपरेखा से आशंकित है। विपक्षी दलों की एकता से निसंदेह एनडीए सरकार की सांसे उखड़ने लगी है। मगर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी विपक्षी एकता एकजुटता की है।  जिनको साबित करना है कि दलों का यह अनाम दलबंदी दल-दल नही है। देश और खासकर यंग इंडिया फिर से अस्थिर भारत और सता के लालची नेताओं को शायद बर्दाश्त ना करे। यानी नाना न प्रकारेण चुनौतियों से जूझ रहे एनडीए सरकार की चुनौती से भी बड़ी चुनौती है जनता के विश्वास को सबल करने की। जिसके बगैर विपक्षी दलों का शीर्षासन बेकार है। इसके बावजूद विपक्षी दलों को इसका संतोष हो सकता है कि शिवसेना साथ में हो या न हो मगर  विरोधी आंदोलन में समर्थन तो है।
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