आरक्षण की नयी परिभाषा में तो पूरा भारत गरीब/

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 अनामी शरण बबल

भारत में 90फीसदी कर्मचारियों का मासिक वेतन 20 हजार से कम।     /66 हजार रुपये मासिक वेतनभोगी भी आरक्षण का हकदार  नयी दिल्ली। आजाद भारत में पहली बार सामान्य वर्ग के ग़ैरआरक्षित  लोगों के लिए आरक्षण मान्य हो गया।सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर  लोगों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण देने वाले विधेयक पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हस्ताक्षर कर दिए हैं। संविधान के 124 वें संशोधन के बाद लोकसभा और राज्यसभा से  इस विधेयक को पारित कर दिया गया था। दोनों सदनों की सहमति के बाद इसे राष्ट्रपति के पास भेजा गया था। जिसके तहत् अब सालाना आठ लाख रूपए से कम वेतन पाने वाले  या पांच  एकड़  से कम  भूमि  रखने वाले निर्धन लोगों  मिलेगा। आरक्षण की इस नयी व्यवस्था के साथ ही निर्धनों के वेतनमान पर ही सवाल उठने लगे हैं। कि क्या निर्धारित वेतन पाने वाले भारतीय को निर्धन कहा और माना जाना चाहिए। तो स्वर्णों को देय आरक्षण की इस  से तो पूरा भारत ही लगभग गरीब है, जबकि इससे उलट भारत की लगभग 90%, कामकाजी आबादी हर माह 20 हजार रुपए से भी कम के वेतन पर निर्भर है। आर्थिक तौर पर कमजोर समाज की इस नये अंकगणित से तो  कमजोरो के लिए आरक्षण का लाभ फिर एक छलावा साबित होगा। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया भर में घूम घूम कर भारत की युवा ताकत और आर्थिक संभावनाओं का बखान करते हैं। विश्व अर्थव्यवस्था के पंडितों ने भी भारत को दुनिया की छठी  सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था करार दिया है। भारत के सिर पर एक गरीब देश का ताज हट गया है। पांच सबसे अमीर देशों की कतार में अपना भारत भी अब तीसरे नंबर पर खड़ा होकर अमरीका  और चीन के साथ अमर अकबर एंथनी  सिनेमा का गाना गा रहा है। ये आंकड़े विदेशियों को अचंभित करने के लिए तो लुभावना प्रतीत होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था की परिभाषा में आठ लाख रूपए का सालाना वेतनभोगी भी गरीब है। इससे भारत की अमीरी खरीद क्षमता और मजबूत आर्थिक क्षमता का अंदाजा लगता है। जबकि हकीकत के आईने में सच काफी भयावह है। भारत में केवल दस प्रतिशत कामगारों का वेतन बीस हजार रुपए से अधिक से लेकर दस लाख या उससे भी अधिक मासिक वेतनभोगी है। अलबत्ता 90% आबादी का मासिक वेतन 20 हजार रुपये से भी कम है। बीस हजार रुपए मासिक वेतन पाने वाले कर्मचारियों की तादाद कम है। ज्यादातर कर्मचारियों को पांच हजार से भी कम मासिक वेतनमान पर काम करना पड़ता है। वेतनमान की इस विसंगति के अलावा देश की हकीकत को दिल्ली मुंबई बंगलूरू अहमदाबाद या किसी महानगर के चश्मे से देखा नहीं जा सकता और ना ही भारत यानी गांव देहात कस्बों और गंवई छोटे शहरों में आबाद असली भारत की पीड़ा को समझा जा सकता है। आज भी एक सौ पच्चीस करोड़  की आबादी में रोजाना 20 करोड़ से अधिक लोगो एक दिन में को दो समय भोजन नसीब नहीं होता है। करीब 20 करोड़ युवाओं की बेकारी सबसे ज्वलंत समस्या है। हर साल दस हजार से ज्यादा किसान गरीबी और कर्जे की वजह से आत्महत्या कर लेता है।  गरीबी लाचारी अपमान जलालत और पराजय की इन घटनाओं से अलग मोबाइल मोटर की खपत में भारत की रफ्तार चीन से भी अधिक है। देश का ग्रामीण बाजार और मल्टीनेशनल कंपनियों के सामान की खपत  भी शहरियों को चकित करती है। गैर आरक्षित जातियों को आरक्षण का लाभ देने की नीयत से संविधान के 124 वें संशोधन के मात्र 96 घंटे के भीतर इसे कानूनी ढांचे में परिवर्तित कर दिया गया। हालांकि मौजूदा स्वरूप में बहुत झोल है। वर्तमान आंकड़ों में तो पूरा भारत ही गरीब है और लगभग सारे लोग ही आरक्षित दायरे में समा जाएंगे।  केवल डेढ़ साल के भीतर जीएसटी में अनगिनत संशोधन सुधार और बदलाव करके जीएसटी के दर्द को सहनीय बना दिया गया, ठीक उसी तरह जब आरक्षण की सीमा को 49.5 के दायरे को और चौड़ा कर दिया गया है तो सबसे बड़ा यही सवाल उठता है कि भले ही सरकारी नौकरियों का अकाल हो फिर भी बेकारी की आग को मंद करने के लिए आरक्षण के लॉलीपॉप को यदा कदा  कब तक अपना हित साधने के लिए उपयोग में लाया जाएगा?
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