हिंदी ने बनाई प्रीत, मिले हिंदी के मनमीत

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समग्र समाचार सेवा 
नयी दिल्ली .7नवम्बर .भाई राशी सिंह जी और दक्षिण अफ्रीका के सेवानिवृत्त प्राचार्य श्री अभिमन्यु दूधराज जी जो दिल्ली में आर्य समाज के महासम्मेलन में भाग लेने के लिए आए थे। वे प्रयाग और सूरत होते हुए कल मुंबई पहुंचे। मुंबई में केवल मुझसे मिलने के लिए। मैं भारत में उनका शायद एकमात्र रिश्तेदार हूँ। 2012 में जोहांसबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में आयोजित नवें विश्व हिंदी सम्मेलन मैं  दो-तीन दिन छोटी-छोटी मुलाकात, उऩमें उभरे कुछ जज़्बात, जो रिश्तों में बदल गए। उस समय उन्होंने कहा था, ‘अब तो भारत में हमारा कोई रिश्तेदार नहीं है, वहाँ हम जाते हैं तो कोई पहचानता नहीं है।’ तब मैंने कहा था, ‘आप भूल रहे हैं’ , ‘आपका एक रिशतेदार तो भारत में हैं।’  ‘भारत में कहाँ ?’  ‘आप भूल गए, मुंबई में है ना आपका भाई।’ आपके सामने खड़ा है। अब कभी यह मत कहना कि भारत में आपका कोई नहीं। तब से जो रिश्ते बने कायम हैं।  समय के साथ इन रिश्तों पर धूल नहीं चढ़ी,  समय के साथ ये और अधिक प्रगाढ़ होते चले गए। रिश्तों की बुनियाद में अगर कोई चीज है तो वह है हिंदी, राम, रामचरितमानस, गांधीजी, भारत, भारतीयता और उनसे उपजी आत्मीयता के साथ-साथ सदियों के बिछोह की कोई टीस।
 
भाई अभिमन्यु दूधराज ने बताया कि उनके परदादा फैजाबाद जिला, जो आज अयोध्या हो गया है, उसके किसी गांव से दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे। आज भी उन्हें अपने गाँव और अपने रिश्तेदारों की तलाश है। इसी बरस फरवरी माह में जब वे भारत आए थे तो उन्होंने अपने परिजनों को ढूंढने की कोशिश भी की थी लेकिन कुछ पता नहीं चला। बहन सुरीटा से 2012 में विश्व हिंदी सम्मेलन के समय मुलाकात हुई थी उसके बाद कभी मुलाकात नहीं हुई। सोशल मीडिया और फोन पर तो बात होती ही रहती है। सुरीटा कभी भारत नहीं आई, लेकिन अपनी हर बात मुझे बताती है, अपना और मेरा हर दुख-सुख बांटती है। जब कामिनी बीमार थी , वह कहती थी, आप कहें तो मैं छु़ट्टी ले कर भाभी की सेवा के लिए आ जाऊँ। जब कामिनी नहीं रही तो उसने मेरे दुख को बांटा. ढाढ़स बंधाया।  सुरीटा ने डरबन से मेरे लिए राशी भाई के हाथों मेरे लिए उपहार भी भेजा। व्हाट्सएप की वीडियो कॉल पर आज बहन सुरीटा से थोड़ी सी बात हुई थी कि उसने मेरी आँखों में छिपे आंसुओं को पढ़ लिया और उसकी भी आंखों में आंसू छलक आए। मैं बात न कर सका और फोन राशी भाई को दे दिया।

यादों को खंगालते हुए, अपनत्व की वीणा के तारों को झंकृत करते हुए आधा दिन यूँ ही निकल गया। दूधराज जी दो बरस पहले भी घर आए थे। तब भी उन्होंने परिवार के साथ तस्वीरें खिंचवाई थीं । उन्होंने जब वे तस्वीरें मुझे दिखलाई तो मैंने स्वयं को मुश्किल से संभाला क्योंकि तस्वीर में दिख रही ‘वह’ अब केवल तस्वीर में ही थी। वे भी खामोश मेरे चेहरे के आते -जाते भावों को देखते रहे थे।
 
लंबे-चौड़े राशी भाई बड़े ही दिल-खुश लेकिन बहुत ही संवेदनशील इन्सान हैं, दक्षिण अफ्रीका में देखा था, गाना भी गाते हैं, धमाल भी करते हैं और उऩका हास्यबोध भी गज़ब का है। आते ही उन्होंने कहा मुझे गाँधी टोपी चाहिए थी, कुछ ठेलेवालों को पहने देखा था, पर कहीं मिली नहीं। ‘गाँधी को तो भारत के लोग कब के भुला चुके हैं’ , मैंने अपने मन में कहा। फिर जवाब दिया, ‘फोन पर बता देते तो मैं मंगवा कर रखता’, अभी तो मिलनी मुश्किल है, फिर भी पता करता हूँ । उनकी या मेरी किस्मत अच्छी थी नीचे ही एक दुकान पर गाँधी टोपी मिल गई। वह दुकानदार भी न जाने कब से रख कर बैठा होगा, सोचा होगा अच्छा हुआ कहीं से कोई गांधीवादी आ गया नहीं तो पड़े – पड़े खराब हो जाती।
 
राशी सिंह हिंदी थोड़ी टूटी- फूटी बोलते हैं, पर समझ आती है। मैंने कहा राशीजी, अब तो आप रिटायर हो गए हैं कभी कभार भारत आते रहा कीजिए । ‘नहीं’,  कहकर वे चुप हो गए फिर थोड़ा रुक कर बोले , ‘पहले आपको आना पड़ेगा, एक सप्ताह के लिए नहीं , कम से कम दो-तीन महीने के लिए।’ मैंने कहा, ‘राशी भाई मैं तो जिम्मेदारियों से जकड़ा हूँ, सप्ताह भर क्या दो-तीन दिन के लिए भी आना संभव नहीं लगता। काफी बातें हुई। बातचीत के अंतिम पड़ाव पर  आत्मीयता तब छलक उठी जब दूधराज और राशि सिंह जी चलने लगे तो भाई राशि सिंह ने मेरी किसी बात पर कुछ नम सी आंखें लिए और मुस्कुराते हुए कहा, भाई जी अब रुलाएंगे क्या? हम गले लग गए। सदियों पुराने बिछड़े अपने भारतवंशींं बंधुओं से हुई यह मुलाकात भारतवंशियों के प्रति  आत्मीयता की भावनाओं को कुरेद गई । फिर आना, फिर मिलेंगे के साथ धरती के दो दूर के हिस्सों में बसनेवाले सदियों के बिछुड़े बंधु फिर मिलने की बात करते हुए जुदा हो गए। 

                                      दीयों में कितनी रोशनी थी,

                                                                      पिछले बरस दिवाली में।

                                                                          आंखों के दीये रीते हैं,

                                                                                  अबकी बार दिवाली में।
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