कमलनाथ और अधीररंजन चौधरी में तीन समानताएं हैं। दोनों बंगाली हैं। कांग्रेस से हैं। नाथ पार्टी की मध्यप्रदेश तो चौधरी पश्चिम बंगाल इकाई के मुखिया हैं। कुछ अजीब लगने वाली असमानताओं को भी तलाशा जा सकता है। चौधरी पार्टी आलाकमान के लिए भी चौधराहट से भरे हुए हैं। नाथ के भीतर शीर्ष नेतृत्व के लिए “हे मेरे नाथ” वाला भाव कूट-कूटकर भरा है।
इन दो चेहरों का एक साथ जिक्र यूं किया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में चौधरी ने जो कुछ दड़े-गम किया, नाथ मध्यप्रदेश में वैसा ही करने की तैयारी में कुछ धुंधलके के बीच दिखते हैं, लेकिन उनसे वह चौधरी जैसी हिम्मत के साथ हो सकेगा, इसमें पूरी तरह आशंका ही दिखती है।
नाथ ने कहा है कि कांग्रेस सितंबर में राज्य की कम से कम अस्सी सीटों के लिए प्रत्याशी घोषित कर देगी। क्या यह संभव है? विशेषत: तब, जबकि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समाजवादी पार्टी (सपा) तथा गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) से कांग्रेस के चुनावी गठबंधन का गणित सुलझ नहीं सका है। प्रदेश में कांग्रेस की कमजोरी का मर्ज बीते पंद्रह साल में उसे कर्ज की चक्रवृद्धि ब्याज की दर के असर जैसा खोखला कर चुका है। उस पर माहौल ऐसा बन चुका है कि इन दलों से गठबंधन किए बिना कांग्रेस की जीत लगातार चौथी बार भी असम्भव दिख रही है। प्रदेश में गठबंधन के इस माहौल को कांग्रेस के भय ने ही खड़ा किया है। अब यह गले की फांस जैसा है।
अस्सी सीटों के ऐलान से पहले नाथ को यह याद रखना होगा कि बसपा प्रदेश में उससे कम से कम 30-35 सीटें मांग चुकी है। सपा तथा गोंगपा की सियासी सौदेबाजी का यह आंकड़ा क्रमश: 13 एवं 20 है। कांग्रेस इन अभिलाषाओं की पूर्ति करती है तो उसे महज 167 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का मौका मिलेगा। इसके साथ ही शेष 63 सीटों पर भितरघात की चुनौती भी उसके सामने आ खड़ी होगी। यहीं से नाथ की घोषणा पर सवलिया निशानों की स्याही और गहरा जाती है। क्या वह खासकर बसपा और सपा को उनकी अपेक्षाओं (कांग्रेस की हालत देखकर शर्त भी कह सकते हैं) से कम पर राजी कर पाएंगे? वह भी तब, जबकि तीनों ही दलों को कांग्रेस के सहयोग की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी कांग्रेस को उनके समर्थन की है।
इससे भी बड़ी बात यह कि नाथ ऐसा करने की पहल भी कैसे कर पाएंगे। कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मायावती एवं अखिलेश यादव की मदद चाहिए। खासकर उत्तरप्रदेश में, जहां दोनों कांग्रेस को किसी लायक नहीं समझते हैं। मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव के रूप में सम्माजनक सगाई नहीं हो पाई तो लोकसभा चुनाव की शक्ल में की जा रही शादी की तैयारियों पर पानी फिरना तय है। तो पंजे के एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई है। मध्यप्रदेश में सम्मान ताक पर नहीं रखा तो फिर जीतना मुश्किल है। लेकिन अपनी ही चलाई तो राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी की नाक के और नीचा होने का पुख्ता बंदोबस्त हो जाएगा।
मायावती की इकलौती अधूरी आकांक्षा देश का प्रधानमंत्री बनने की है। सांसदों की संख्या की बात छोड़ दें तो जोड़तोड़ एवं सौदेबाजी की क्षमता, आर्थिक संसाधन, जातिगत सियासत में महारत, मौके पर पाला बदलने में दक्षता आदि-आदि जरूरी संपदा से वह मालामाल हैं। उनका लक्ष्य लोकसभा में 50 सीटें हासिल करने का है। अब अकेले उत्तर प्रदेश में तो सपा और बसपा के गठबंधन के होते ऐसा होने के आसार नहीं हैं। इसलिए मायावती मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में भी कांग्रेस से गठबंधन के लिए सीटों की मांग कर सकती है। तभी यह संभव है कि सपा और बसपा उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को थोड़ा बहुत भाव देने के लिए राजी हों। ऐसे में नाथ की कोशिश हो सकती है कि राहुल गांधी के मार्फत मायावती को इस बात के लिए तैयार कर लिया जाए कि वह मध्यप्रदेश में कुछ झुक जाएं और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उनके लिए एअर इंडिया के पूर्ववर्ती “महाराजा” की तरह पूरी तरह झुक जाएगी।
हालांकि यह भी याद दिला दें कि कांग्रेस के युवराज से राजा बने राहुल तो मायावती एवं अखिलेश के आगे पहले ही काफी झुके हुए हैं। यह झुकावट दुष्यंत कुमार के “मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा” वाली नहीं है। गांधी तो बसपा एवं सपा के आगे इस कदर दंडवत हैं कि जरा गलतफहमी होने पर वह इन दलों से “मैं सजदे में ही था, आपको धोखा हुआ होगा” की तर्ज पर माफी भी मांग सकते हैं। इसलिए मायावती तो संभवत: मध्यप्रदेश और केंद्र के मामले में दोनों हाथों में लड्डू की बात पर ही मानेंगी। हाथी तथा साइकिल की युति कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में अमेठी तथा रायबरेली सीट सहित दो या तीन अन्य जगहों पर ही अभयदान देने के मूड में दिखती है। तो अब कांग्रेस को तय करना होगा कि वह सीधे मुकाबले वाले मध्यप्रदेश में अपनी दम पर सम्माजनक स्थिति पाना पसंद करेगी या फिर उत्तरप्रदेश में अपनी खोयी जमीन वापस मिलने की कोई भी उम्मीद न होने के बावजूद वहां अपमानजक समझौते के लिए तैयार हो जाएगी।
चुनाव जीतना महज ट्वीट करने या मूर्खता भरे बयानों पर चाटूकारों की वाहवाही लूटने जितना आसान होता तो राहुल गांधी के लिए हालात आज जितने मुश्किल नहीं होते। खैर, फिर नाथ और चौधरी पर आएं। चौधराहट यह कि दिल्ली में भले ही राहुल-सोनिया ने ममता बनर्जी के आगे समर्पण की मुद्रा अपना रखी हो, लेकिन पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन का साफ कहना है कि किसी भी सूरत में बनर्जी की पार्टी से समझौता नहीं करेंगे। “गांधी+नेहरू परिवार=परम सत्य” की परिपाटी वाली पार्टी में चौधरी जैसे तेवर रखना वाकई कलेजे वाली बात है। नाथ की आयु चौधरी से दस साल अधिक है। प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी जीती तो उन्हें संभवत: अंतिम महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिल जाएगी। यदि हारी तो यह उनकी आखिरी पारी भी हो सकती है। यानी सत्तर साल से अधिक आयु के चलते पाने या खोने का यह उनके पास अंतिम मौका है। ऐसे में तो इंसान नतीजे की परवाह किए बगैर पूरी जान लड़ा देता है। लेकिन क्या एक कांग्रेसी, वह भी नाथ जैसा परम्परागत कांग्रेसी, ऐसा कर पाएगा, इसमें थोड़ा नहीं बहुत ज्यादा संदेह है।
(प्रकाश भटनागर. ये लेखक के अपने विचार हैं)