दीपावली और सनातन परंपरा पर उठते प्रश्न

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पूनम शर्मा
दीपावली केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि यह सनातन धर्म की आत्मा और भारतीय समाज की संस्कृति का उत्सव है। पाँच दिनों तक चलने वाला यह पर्व न केवल रोशनी और खुशियों का प्रतीक है बल्कि स्वच्छता, समृद्धि और धर्म के गहन संदेश को भी अपने भीतर समेटे हुए है। आज जब आधुनिकता और तथाकथित पर्यावरणवाद के नाम पर अपने ही पर्वों को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब ज़रूरत है कि दीपावली को उसकी मूल भावना में समझा जाए।

पाँच दिनों का पर्व – परंपरा और अर्थ

दीपावली पर्व की शुरुआत धनतेरस से होती है और भाई दूज पर इसका समापन होता है। इस अवधि में हर दिन का एक विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व होता है —

धनतेरस: स्वच्छता, स्वास्थ्य और लक्ष्मी का स्वागत।

नरक चतुर्दशी: नकारात्मकता और अंधकार का अंत।

दीपावली: भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की स्मृति में आनंदोत्सव।

गोवर्धन पूजा: प्रकृति और गोवर्धन पर्वत की आराधना।

भाई दूज: भाई-बहन के प्रेम का पर्व।

यह विश्व का शायद इकलौता त्यौहार है जिसकी शुरुआत घर की सफ़ाई से होती है। लक्ष्मी की पूजा से पहले घर-आँगन को पवित्र किया जाता है। क्या कोई और त्योहार ऐसा स्वच्छता अभियान अपने आप में समेटे हुए है? यही वह भाव है जो दीपावली को मात्र धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन बनाता है।

पटाखे पर प्रतिबंध और दोहरे मापदंड

हर साल दीपावली से कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट और पर्यावरण संगठनों को “प्रदूषण” की चिंता घेर लेती है। पटाखों पर प्रतिबंध की बहस तेज़ हो जाती है, जबकि इसी देश में नए साल पर, क्रिकेट जीत पर, राजनीतिक रैलियों में और शादियों में आतिशबाज़ी पर कोई रोक नहीं होती। सवाल यह नहीं है कि प्रदूषण को नज़रअंदाज़ किया जाए, सवाल यह है कि क्यों केवल हिंदू पर्वों को ही निशाना बनाया जाता है?

क्या दीपावली पर पटाखे ही प्रदूषण के एकमात्र स्रोत हैं? क्या सुप्रीम कोर्ट कभी उन कारखानों, गाड़ियों, कार्बन उत्सर्जन करने वाले बड़े आयोजनों पर स्वतः संज्ञान लेता है? ऐसा लगता है कि दीपावली आते ही कुछ वर्गों को “पर्यावरण” की याद आ जाती है। यह संयोग नहीं, बल्कि एक सुनियोजित प्रवृत्ति बन चुकी है।

 न्यायपालिका पर उठते सवाल

सुप्रीम कोर्ट का काम कानून की रक्षा करना है, धर्म या संस्कृति तय करना नहीं। लेकिन अब हमारे त्योहारों की मर्यादा और सीमा भी वही तय करने लगा है। पटाखे चलेंगे या नहीं, त्यौहार पर छुट्टी होगी या नहीं, यह अदालत तय करेगी— तो क्या आगे चलकर ये भी तय किया जाएगा कि दीपावली पर दिया जलाया जा सकता है या नहीं?

गौर कीजिए — 365 दिन में 364 दिन सुप्रीम कोर्ट को प्रदूषण की चिंता नहीं होती, लेकिन दीपावली पर हो जाती है। यह सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि वही अदालतें उन्हीं रसूखदार लोगों को जमानत पर तुरंत रिहा करती हैं, जिनके खिलाफ गंभीर मामले चल रहे होते हैं। आम आदमी महीनों सालों न्याय के लिए भटकता है, लेकिन सत्ता और पैसों वाले लोगों के लिए व्यवस्था सहज उपलब्ध है।

धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिन्दू विरोध

भारत का संविधान मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता को “बेसिक स्ट्रक्चर” के रूप में नहीं लाया था। इसे आपातकाल के दौर में राजनीतिक लाभ के लिए जोड़ा गया। आज स्थिति यह है कि जो जितना अधिक हिंदू परंपराओं पर प्रहार करता है, वही ‘सेक्युलर’ कहलाता है। धर्म के नाम पर नकारात्मकता फैलाना और परंपराओं को ही कठघरे में खड़ा करना एक ‘रूढ़’ सोच बन चुका है।

दीपावली पर सवाल उठाना इस प्रवृत्ति का ही हिस्सा है। अगर यही चलन रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अदालत यह भी तय करेगी कि होली पर रंग खेलना है या नहीं, दशहरा में रावण दहन होगा या नहीं।

 सनातन की सहिष्णुता और जागरूकता की ज़रूरत

सनातन धर्म की यही विशेषता रही है कि उसने कभी किसी पर अपने विचार नहीं थोपे। लेकिन इस सहिष्णुता को अब कमज़ोरी समझा जा रहा है। जब हमारी परंपराओं पर प्रहार हो रहा है तो हमें भी सजग होना होगा। दीपावली केवल दीये जलाने का उत्सव नहीं है, यह हमारी पहचान का प्रतीक है।

इस देश के 78% से अधिक लोग सनातन धर्म के अनुयायी हैं। ऐसे में पाँच दिवसीय इस पर्व पर राष्ट्रीय अवकाश की माँग अनुचित नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वाभिमान की माँग है। जब क्रिसमस और ईद पर सरकारी अवकाश होता है तो दीपावली पर पूरे पाँच दिन की छुट्टी क्यों नहीं?

न्याय व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत

न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही लाना समय की माँग है। जब नियुक्तियाँ रिश्तों और राजनीति के आधार पर होंगी, तो जनसामान्य का भरोसा उठेगा ही। न्याय व्यवस्था का दायरा धर्म के विरुद्ध खड़ा होने का नहीं, बल्कि सबके अधिकारों की रक्षा का होना चाहिए।

अंत में…

दीपावली पर सवाल उठाना केवल पटाखों का मुद्दा नहीं है, यह हमारी परंपराओं, हमारे अधिकारों और हमारे अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है। जो समाज अपने पर्वों की रक्षा नहीं कर सकता, वह अपनी पहचान भी खो देता है।

इस दीपावली पर केवल दीये ही नहीं जलाइए — अपने भीतर वह ज्योति भी प्रज्वलित कीजिए जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर आत्मसम्मान का प्रकाश फैलाती है।

“दीपावली पर दीया केवल तेल से नहीं, आत्मगौरव से भी जलना चाहिए।”

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