“बंगाल में ममता की सियासी मुश्किलें”

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पूनम शर्मा
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर बड़ा हमला बोला। उन्होंने भाजपा पर “बंगालियों के नाम वोटर लिस्ट से मिटाने” और “भाषाई आतंक” फैलाने का आरोप लगाया। लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में ममता की यह चिंता जनहित के लिए है या फिर यह आने वाले चुनावों से पहले अपने वोट बैंक को बचाने की एक और रणनीति है?

वोटर आईडी घोटालों की असलियत

ममता ने दावा किया कि भाजपा बंगाल में सर्वे करवाकर लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटाना चाहती है। लेकिन क्या ममता यह बताने को तैयार हैं कि पिछले एक दशक में बंगाल में नकली वोटर आईडी और डुप्लीकेट पहचान पत्र किसने बनाए?
चुनावी विश्लेषक बार-बार यह तथ्य सामने लाते रहे हैं कि बंगाल के कई जिलों में वोटर लिस्ट में लाखों डुप्लीकेट नाम मौजूद हैं। सीमावर्ती इलाकों में तो हालात और भी गंभीर हैं, जहाँ अवैध घुसपैठियों को वोटर कार्ड और राशन कार्ड मुहैया कराए गए। यह सब किसके शासनकाल में हुआ? जवाब साफ है—तृणमूल कांग्रेस के शासन में।

आज जब केंद्र सरकार और चुनाव आयोग वोटर लिस्ट को आधार से लिंक करने की प्रक्रिया आगे बढ़ा रहे हैं, तब ममता को यह “साजिश” क्यों लग रही है? हकीकत यह है कि पारदर्शिता लाने की हर कोशिश उनके वोट बैंक की राजनीति को चोट पहुँचाती है।

औद्योगिक पलायन और बंगाल की खोती पहचान

ममता बनर्जी बार-बार “भाषाई आतंक” और “बंगाल के अपमान” की बातें करती हैं। लेकिन क्या उन्होंने कभी यह सोचा कि बंगाल की असली पहचान—उसकी उद्योगिक क्षमता और रोजगार—कहाँ गायब हो गई?
हुगली की जूट मिलें, हल्दिया का पेट्रोकेमिकल हब, दुर्गापुर-बर्नपुर का स्टील उद्योग—एक-एक कर सब बंद हो गए या धीरे-धीरे मरते चले गए। टाटा नैनो प्रोजेक्ट को सिंगूर से भगाकर ममता ने बंगाल को निवेशकों की नजरों से गिरा दिया। आज हालत यह है कि युवा रोजगार की तलाश में राज्य छोड़कर दिल्ली, बेंगलुरु और पुणे का रुख करते हैं।

जब उद्योग ही नहीं होंगे तो राज्य की अर्थव्यवस्था और समाज दोनों में असंतुलन आना स्वाभाविक है। यह असंतुलन ममता की “विकास यात्रा” का असली चेहरा दिखाता है।

जनसांख्यिकीय असंतुलन: बंगाल की बदलती तस्वीर

पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिलों में जनसांख्यिकीय असंतुलन एक गंभीर चिंता का विषय है। बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ को रोकने में ममता सरकार की नाकामी किसी से छिपी नहीं है। बल्कि आरोप तो यह हैं कि टीएमसी इन घुसपैठियों को वोट बैंक बनाने के लिए संरक्षण देती है।
इसी वजह से कई जिलों में स्थानीय बंगालियों को अपने ही गाँव-शहरों में अल्पसंख्यक बनने का डर सता रहा है। यही “भाषाई आतंक” है, लेकिन इसे पैदा किसने किया? भाजपा नहीं, बल्कि ममता की वोट बैंक वाली नीतियों ने।

भ्रष्टाचार और केंद्रीय एजेंसियों का डर

ममता बनर्जी केंद्र पर बार-बार यह आरोप लगाती हैं कि सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है। लेकिन अगर उनकी सरकार और पार्टी नेता भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं, तो इन एजेंसियों से डरने की क्या वजह है?
शिक्षक भर्ती घोटाला, कोयला तस्करी, पशु तस्करी—बंगाल में एक से एक बड़ा घोटाला सामने आया है। इन घोटालों के तार सीधे टीएमसी के नेताओं से जुड़े हैं। लाखों बेरोजगार युवा नौकरी की आस लगाए बैठे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और कोर्ट के मामलों की वजह से भर्तियाँ अटकी पड़ी हैं। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है?

चुनावी रणनीति बनाम वास्तविक मुद्दे

2026 के विधानसभा चुनाव करीब आते ही ममता बनर्जी फिर वही पुराना खेल खेल रही हैं—भावनाओं को भड़काना, भाजपा पर हमला और खुद को पीड़ित दिखाना।

कभी वह “भाषाई आतंक” का मुद्दा उठाती हैं।

कभी “वोटर लिस्ट साजिश” का शोर मचाती हैं।

कभी केंद्र पर फंड रोकने का आरोप लगाती हैं।

लेकिन क्या वह यह बता सकती हैं कि पिछले 14 वर्षों में बंगाल को उद्योग, रोजगार और स्थायी विकास के मामले में क्या मिला? गरीबों को सरकारी योजनाओं से कुछ तात्कालिक राहत भले मिली हो, पर स्थायी समाधान कहाँ है?

निष्कर्ष

ममता बनर्जी का ताजा बयान दरअसल उनकी राजनीतिक बेचैनी को दर्शाता है। औद्योगिक पलायन, जनसांख्यिकीय असंतुलन, भ्रष्टाचार और वोटर आईडी घोटालों ने बंगाल की नींव हिला दी है। इन मुद्दों पर जवाब देने की बजाय ममता भावनात्मक कार्ड खेलकर असल समस्याओं से ध्यान हटाना चाहती हैं।

बंगाल को आज ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो केवल चुनावी आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठकर राज्य की अर्थव्यवस्था, पहचान और सुरक्षा को मजबूत करे। लेकिन दुर्भाग्य से, ममता बनर्जी का शासन इन बुनियादी सवालों के जवाब देने से लगातार बच रहा है।

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