पूनम शर्मा
कार्टून विवाद से उठे बड़े सवाल
इंदौर के कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय हाल ही में तब विवादों में आ गए जब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को लेकर एक कार्टून बनाया। यह कार्टून सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और उस पर नागरिकों ने कड़ी आपत्ति जताई। शिकायत दर्ज होने के बाद आखिरकार मालवीय को सार्वजनिक रूप से माफी माँगनी पड़ी।
यह घटना केवल एक कार्टून तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस मानसिकता को दर्शाती है जो वर्षों से भारतीय राजनीति और समाज में देखी जा रही है—जहां व्यंग्य और तंज का सबसे आसान निशाना राष्ट्रवादी नेतृत्व और संगठन होते हैं।
कार्टून क्यों बनते हैं सिर्फ नेताओं पर?
व्यंग्य, कार्टून और कटाक्ष लोकतंत्र में स्वाभाविक हैं। यह व्यवस्था को आईना दिखाने का एक माध्यम है। लेकिन जब यह आईना सिर्फ एक ही दिशा में घुमाया जाता है, तो सवाल उठना लाज़मी है।प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस जैसे संगठनों पर बार-बार निशाना साधना इसलिए आसान माना जाता है क्योंकि यह “ट्रेंड” बन चुका है।जिन वर्गों को मोदी और संघ की विचारधारा से वैचारिक विरोध है, वे कार्टून और व्यंग्य को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।इस प्रक्रिया में यह भूल जाते हैं कि व्यंग्य का असली मकसद समाज की बुराइयों को उजागर करना है, न कि केवल राजनीतिक दुश्मनी निभाना।
बॉलीवुड और अन्य सेलिब्रिटी क्यों बच निकलते हैं?
आज भारत में सिनेमा और सोशल मीडिया ने संस्कृति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला है। बॉलीवुड की कई हस्तियाँ ड्रग्स से लेकर अय्याशी, अंधविश्वास और समाजविरोधी गतिविधियों तक में नामित रही हैं।
ड्रग्स कांड से लेकर काले धन और टेरर फंडिंग के आरोपों तक—कई सेलिब्रिटी समाज के सामने नकारात्मक उदाहरण पेश करते रहे हैं।
टीवी रियलिटी शोज़ से लेकर फिल्मों तक, कई बार ऐसा कंटेंट परोसा जाता है जो भारतीय संस्कृति और मूल्यों का मज़ाक उड़ाता है।लेकिन इन पर व्यंग्य या कार्टून शायद ही कभी बनाए जाते हैं।
क्यों? क्योंकि यहां चमक-धमक और लोकप्रियता का ऐसा आभा मंडल है कि कोई भी कलाकार या कार्टूनिस्ट इस घेरे को तोड़ने की हिम्मत नहीं करता। राजनीतिक नेतृत्व को चुनौती देना “साहस” कहलाता है, लेकिन फिल्मी और सामाजिक जगत की गंदगी को उजागर करना “जोखिम” माना जाता है।
राष्ट्रवाद बनाम तथाकथित प्रगतिशीलता
भारत में एक बड़ा वर्ग आज भी मानता है कि राष्ट्रवाद या धर्म-संस्कृति से जुड़े संगठन कटाक्ष और मज़ाक का सबसे सही विषय हैं। इसी सोच के चलते आरएसएस जैसे संगठन, जो शिक्षा, सेवा और समाज निर्माण में दशकों से लगे हैं, कार्टून और व्यंग्य में “अंधभक्त” या “कट्टरपंथी” के रूप में पेश किए जाते हैं।
वहीं, यदि यही व्यंग्य बॉलीवुड की नशाखोरी या अपराध से जुड़े चेहरों पर किया जाए, तो कलाकारों के समर्थन में पूरी की पूरी लॉबी खड़ी हो जाती है। यह दोहरा मापदंड समाज को कहीं न कहीं भ्रमित करता है।
कार्टून की स्वतंत्रता बनाम जिम्मेदारी
यह सच है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर कलाकार और लेखक का अधिकार है। लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि आप सिर्फ एक विचारधारा या संगठन पर हमले करते रहें।
यदि कार्टून समाज को बदलने का जरिया है, तो फिर उसका दायरा व्यापक होना चाहिए।
बच्चों में ड्रग्स की लत डालने वाले फिल्मी सितारे, समाज में गंदा कंटेंट परोसने वाले इन्फ्लुएंसर, या देश की छवि खराब करने वाले सेलेब्रिटी—क्या ये कार्टून और व्यंग्य के योग्य विषय नहीं हैं?
जिम्मेदारी यह है कि कार्टून सत्ता या विपक्ष, दोनों का ही आईना बने।
जनता की प्रतिक्रिया क्यों कड़ी होती है?
प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस को लेकर कार्टून पर जनता की प्रतिक्रिया इतनी कड़ी क्यों होती है?
क्योंकि करोड़ों भारतीय इन दोनों को राष्ट्र की आत्मा और संस्कृति के रक्षक मानते हैं।
जब किसी संगठन ने वर्षों तक समाजसेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य और राष्ट्र निर्माण में काम किया हो, तो उस पर कटाक्ष आम नागरिक की भावनाओं को आहत करता है।
यही कारण है कि शिकायत दर्ज कराई गई और कार्टूनिस्ट को माफी मांगनी पड़ी।
व्यंग्य संतुलित होना चाहिए
कार्टून और व्यंग्य लोकतंत्र की आत्मा हैं, लेकिन जब यह सिर्फ एक विचारधारा पर केंद्रित हो जाए, तो यह पूर्वाग्रह बन जाता है। हेमंत मालवीय के कार्टून ने यही प्रश्न उठाया—क्या सिर्फ मोदी और आरएसएस ही व्यंग्य के योग्य विषय हैं?
आज जरूरत है कि कार्टूनिस्ट और व्यंग्यकार समाज के हर हिस्से को आईना दिखाएं—चाहे वह राजनीति हो, बॉलीवुड हो, खेल हो या सोशल मीडिया के सितारे। तभी लोकतंत्र में व्यंग्य अपनी असली ताकत दिखा पाएगा।
अन्यथा, यह धारणा बनती रहेगी कि राष्ट्रवाद और उसकी प्रतीक संस्थाएँ ही “आसान निशाना” हैं, जबकि समाज को नुकसान पहुँचाने वाले असली चेहरे बच निकलते हैं।