“असम में नया आधार कार्ड बंद: घुसपैठ रोकने का ऐतिहासिक फैसला”

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पूनम शर्मा
असम में घुसपैठ और जनसंख्या असंतुलन का मुद्दा दशकों से राजनीति और सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करता रहा है। मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने हाल ही में एक ऐसा ऐतिहासिक और कड़ा फैसला लिया जिसने पूरे देश ही नहीं बल्कि पड़ोसी देशों—बांग्लादेश और पाकिस्तान—तक में हलचल मचा दी। सरकार ने घोषणा की है कि राज्य में 18 वर्ष से ऊपर के लोगों को नया आधार कार्ड अब जारी नहीं किया जाएगा।

क्यों लिया गया यह कदम?

असम लंबे समय से बांग्लादेश से हो रही अवैध घुसपैठ की समस्या से जूझ रहा है। सरकार का मानना है कि घुसपैठिए आधार कार्ड बनवाकर खुद को भारतीय नागरिक के रूप में पेश करते हैं और यही पहचान उन्हें वोटर लिस्ट में जगह दिलाती है। सितंबर 2025 तक जिनके पास आधार कार्ड नहीं है, वे बनवा सकते हैं। उसके बाद यह प्रक्रिया पूरी तरह बंद हो जाएगी। केवल विशेष मामलों में, जिला उपायुक्त और पुलिस की अनुमति से आधार जारी होगा। सरकार का कहना है कि यह कदम फर्जी दस्तावेज़ों पर लगाम लगाने और राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है।

राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ

कांग्रेस और विपक्षी दल इस फैसले को “लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला” बता रहे हैं।ममता बनर्जी ने इसे “मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने की साजिश” करार दिया। मगर हिमंता बिस्वा शर्मा का स्पष्ट कहना है कि असम किसी शरियत या साजिश का शिकार नहीं बनेगा और अवैध घुसपैठियों का भारत में बसने का सपना कभी पूरा नहीं होगा।

वोटर लिस्ट और SSR का खेल

इसी बीच असम और बिहार दोनों राज्यों में Special Summary Revision (SSR) की प्रक्रिया भी चल रही है। इसमें फर्जी वोटरों के नाम हटाने और वोटर लिस्ट को आधार से जोड़ने का काम तेज़ किया जा रहा है। सीमावर्ती जिलों में अक्सर 100% वोटिंग दर्ज होती है, जो संदेह पैदा करती है। आरोप है कि मृतक व्यक्तियों और नाबालिग बेटियों के नाम भी वोटर लिस्ट में बने रहते हैं। SSR के बाद यह समस्या काफी हद तक खत्म होने की संभावना है। बिहार में SSR के तहत अब तक 65 लाख से ज्यादा वोटरों के नाम हटाए गए, जिस पर कांग्रेस और RJD ने कड़ा विरोध जताया है। असम में भी यही प्रक्रिया लागू होते ही राजनीतिक हलचल तेज़ हो गई है।

चुनावी असर

असम में मई 2026 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बीजेपी इस फैसले को “राष्ट्रीय सुरक्षा और जनसंख्या संतुलन” का मुद्दा बनाकर जनता के सामने जाएगी। अगर यह कदम सफल साबित होता है तो बीजेपी के लिए यह बड़ा चुनावी हथियार होगा। वहीं विपक्ष इसे “नागरिक अधिकारों की छीना-झपटी” और “ध्रुवीकरण की राजनीति” बताकर जनता को लामबंद करने की कोशिश करेगा। पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों में भी इस बहस का असर पड़ना तय है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले से ही NRC और SSR जैसी प्रक्रियाओं को लेकर बेचैनी दिखा चुकी हैं।

सामाजिक चिंता

कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि असम में मुसलमानों की आबादी 35% तक पहुँच चुकी है और अगले 8–10 सालों में यह 50% के करीब हो सकती है। यह स्थिति राज्य की जनसंख्या संरचना को बदल सकती है। बीजेपी इसी तर्क को आगे रखकर इसे सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्तित्व का सवाल बना रही है।

निष्कर्ष

असम में आधार कार्ड बैन का फैसला केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि यह पूरे पूर्वोत्तर की राजनीति, सुरक्षा और पहचान से जुड़ा हुआ है। एक ओर सरकार इसे अवैध घुसपैठ रोकने का निर्णायक वार बता रही है, तो दूसरी ओर विपक्ष इसे लोकतंत्र और अधिकारों पर हमला करार दे रहा है।

आगामी विधानसभा चुनावों में यह मुद्दा केंद्र बिंदु बनेगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि असम की जनता इसे सुरक्षा का गारंटी मानती है या फिर इसे राजनीतिक हथकंडा समझकर खारिज करती है।

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