क्या पाकिस्तानी परमाणु भंडारण में संभावित विकिरण के डर ने अमेरिका को किया दखल देने पर मजबूर ? 

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पूनम शर्मा 

कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ने लगा, तब अमेरिका शुरुआत में इस मामले से दूरी बनाए रखने के मूड में था। लेकिन जैसे-जैसे हालात बिगड़ते गए और परमाणु युद्ध  की आशंका बढ़ने लगी, ट्रंप प्रशासन को मजबूरन दखल देना पड़ा। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया है ।

टकराव की शुरुआत और बढ़ता तनाव

22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में एक भीषण आतंकी हमला हुआ, जिसमें 26 लोगों की जान गई, जिनमें अधिकतर हिंदू पर्यटक थे। इस हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान और पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर (PoK) में आतंकी ठिकानों पर जवाबी हवाई हमले किए। जवाब में पाकिस्तान ने भी सैन्य कार्रवाई की, जिससे दोनों देशों की वायु सेनाओं के बीच डॉगफाइट्स और ड्रोन हमले तक की नौबत आ गई।

मामला तब और गंभीर हो गया जब भारत ने पाकिस्तान के रावलपिंडी स्थित नूर खान एयरबेस पर हमला किया। यह एयरबेस न सिर्फ एक प्रमुख सैन्य ठिकाना है, बल्कि इसके पास ही पाकिस्तान का स्ट्रैटजिक प्लान्स डिवीजन है, जो उसके परमाणु हथियारों की देखरेख करता है। भारत ने मात्र आतंकवादी ठिकानों पर हमला किया था परंतु पाकिस्तान पर किए गए हमलों से अमेरिका और इंग्लैंड इतना क्यों चिंतित हुए एवं उनके हवाई जहाज का वहाँ देखा जाना जोकि सोशल मीडिया पर काफी वाइरल है यह सोचने का विषय है । 

अमेरिका और ब्रिटेन की बढ़ती चिंता

हाल ही में कुछ अपुष्ट रिपोर्टों में दावा किया गया है कि पाकिस्तान में रेडिएशन यानी विकिरण संबंधी असामान्य गतिविधियां देखी गई हैं। इससे संदेह गहराया है कि क्या पाकिस्तान सिर्फ परमाणु हथियार रखने वाला देश है या वह अन्य देशों के लिए इन हथियारों का भंडारण स्थल भी बन चुका है?

इन रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया है कि सैटेलाइट इमेजरी और इंटेलिजेंस सूचनाओं के आधार पर अमेरिका और ब्रिटेन की खुफिया एजेंसियां यह मान रही हैं कि पाकिस्तान में कुछ ऐसे गोपनीय स्थान हैं, जहां परमाणु गतिविधियां हो रही हैं लेकिन उस पर किसी अंतरराष्ट्रीय निगरानी संस्था जैसे इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) की निगरानी नहीं है। यह अंतरराष्ट्रीय नियमों और सुरक्षा के लिहाज से एक गंभीर चिंता का विषय है।

यही वजह है कि अमेरिका और ब्रिटेन इस मामले को केवल भारत-पाकिस्तान के द्विपक्षीय संघर्ष के तौर पर नहीं देख रहे, बल्कि इसे वैश्विक परमाणु सुरक्षा से जुड़ा मसला मान रहे हैं।

ट्रंप प्रशासन की अनिच्छा से लेकर सक्रियता तक

शुरुआत में अमेरिकी उपराष्ट्रपति जे.डी. वांस ने इस मुद्दे से पल्ला झाड़ते हुए कहा, “यह हमारा मामला नहीं है। हम सिर्फ दोनों देशों को संयम बरतने की सलाह दे सकते हैं।” लेकिन जब अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने जानकारी दी कि पाकिस्तान ने 300 से 400 ड्रोन भारत में भेजे हैं और दोनों देशों की वायु सेनाएं आमने-सामने हैं, तो वाइट हाउस में हलचल तेज हो गई।ऐसा विदेशी मीडिया का मानना है । 

न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, उपराष्ट्रपति वांस और विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने तुरंत एक्शन लेना शुरू किया। वांस, जो हाल ही में भारत यात्रा से लौटे थे, ने सीधे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से संपर्क किया। उन्होंने चेतावनी दी कि अमेरिका को आशंका है कि अगर तुरंत कदम नहीं उठाए गए तो यह टकराव एक बड़े युद्ध में बदल सकता है। जबकि सच कुछ और ही है ,पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर हमले के कारण हुई  क्षति से परमाणु विकिरण की खबरों से  अमेरिका और इंग्लैंड में चिंता व्याप्त है । इस कारण ही रूबियो ने पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल असीम मुनिर से  लगातार संपर्क साधा।

पाकिस्तान की प्रतिक्रिया और परमाणु हथियारों की चिंता

इस बीच पाकिस्तान में हलचल और बढ़ गई। प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने राष्ट्रीय कमान प्राधिकरण (National Command Authority) की आपात बैठक बुलाई थी , जो परमाणु हथियारों पर निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था है। हालाँकि रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने इस बात से इनकार किया कि परमाणु विकल्प पर विचार हो रहा है, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि “यह एक दूर की संभावना है, लेकिन इससे पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता।”

एक पूर्व अमेरिकी अधिकारी ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि पाकिस्तान की सबसे बड़ी चिंता यही है कि कहीं उसके परमाणु कमान ढांचे को भारत द्वारा निशाना न बनाया जाए। नूर खान एयरबेस पर हमला, उनके लिए एक चेतावनी की तरह देखा गया।

अमेरिका की मध्यस्थता से हुआ विराम ऐसा अंतरराष्ट्रीय मीडिया का मानना 

जब वाशिंगटन को अहसास हुआ कि उनके संदेश  दिल्ली तक पूरी तरह नहीं पहुँच रहे हैं, तब ट्रंप प्रशासन ने और आक्रामक कूटनीतिक रवैया अपनाया। उपराष्ट्रपति वांस और रूबियो की पहल पर शुक्रवार रात से शनिवार सुबह तक कई उच्चस्तरीय कॉल और वार्ताएं हुईं। ऐसा विदेशी मीडिया का मानना है । नतीजा यह हुआ कि दोनों देशों के बीच एक अस्थायी सीज़फायर लागू हो गया। पाकिस्तान ने अमेरिका के प्रयासों की सराहना की और प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने सार्वजनिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति को धन्यवाद दिया। भारत ने हालांकि इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

परमाणु डर की ताकत

यूरोप के मीडिया इस  घटना को इस बात का सबूत मानते हैं  कि जब दो परमाणु संपन्न देश आमने-सामने होते हैं, तो वैश्विक शक्तियों को हस्तक्षेप करना ही पड़ता है, चाहे वे शुरुआत में कितनी ही अनिच्छा क्यों न दिखाएँ । यह टकराव सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच नहीं था, बल्कि पूरी दुनिया की परमाणु सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता था। लेकिन यह हस्तक्षेप यूक्रेन एवं रूस के निरंतर चल रहे युद्ध में देखने को क्यों नहीं मिल रहा है ?

इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि क्या पाकिस्तान में परमाणु हथियारों के  रखरखाव में अपना कोई नियंत्रण नहीं है ? अमेरिका और इंग्लैंड के सिवा अन्य  अंतरराष्ट्रीय परमाणु संस्थाएं वहाँ  सक्रिय  क्यों नहीं हैं? 

इन सवालों के जवाब अभी सामने नहीं आए हैं, लेकिन एक बात स्पष्ट है — परमाणु हथियारों की दुनिया में, हर टकराव सिर्फ दो देशों का नहीं होता, बल्कि पूरी मानवता के लिए खतरे की घंटी बजा देता है।

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