हमारे शहर के तथाकथित बुद्धिजीवियों पत्रकारों, न्याय के लिय बोलने वालो को आज बड़ी बहन कानपुर की मेयर प्रमिलाजी ने आयना।दिखा दिया है! सामाज के सामने उनकी असली तस्वीर रख दी है
कितने बौने कितने लाचार हैं ये लोग, आज मंदिर पूछ रहे हैं कहा है हिन्दू मुसलीम भाईचारा, गंगा जमुनी तहजीब, सेक्युलरिज्म, का पाठ। पढ़ाने वाले वे नेता जो खुद को हिन्दू कहते है,
क्या कोई जवाब पूछ सकता है इतनी बेअदबी क्यों की हमारे मंदिरों की? आत्मा रो दी इन मंदिरों के साथ जो बर्ताव किया गया! ये मन्दिर आयना है आपका
आज इनकी ये हालत इस लिय क्यो के ये मुसलीम आबादी के बीच थे , लोकतांत्रिक भारत में जहा गंगा जमुनी तहजीब सिखाई जाती है सम्मान करें पूजा स्थलो का, मन्दिर ये इस बात को चीख चीख कर बता रहे के कल आप के साथ क्या होना है, जब आप इनके रहमो करम पर होगे इसी तरह वीरान होगे आप भी गर न चेते!l क्या कोई दस मस्जिद्र बता सकता है जिनके साथ बेअदबी की गई जो हिंदु इलाको में है
साहित्य के एक प्रख्यात विचारक ग्राम्सी कहते हैं, “गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती है।” भारतीय समाज भी लंबे समय से सांस्कृतिक गुलामी से घिरा रहा है, बोलने की स्वतंत्रता के नाम पर, कला के नाम पर
हमारा सामाज अभी भी अंग्रेजों द्वारा कराए गए हीनताबोध से मुक्त नहीं हुआ है। और न मुस्लिम लीग के झूठे दलित कार्ड से
भारतीय ज्ञान परंपरा को अंग्रेजों ने तुच्छ बताकर खारिज किया ताकि वे भारतीयों की चेतना को मार सकें और उन्हें गुलाम बनाए रख सकें। गुलामी की लंबी छाया इतनी गहरी है कि उसका अंधेरा आज भी हमारे बौद्धिक जगत को पश्चिमी विचारों की गुलामी के लिए मजबूर करता है।
भारत के सामने अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र है, ‘सबसे पहले भारत’ स्व-पहचान एवं स्व-संस्कृति। इसके साथ ही हमें अपने समाज में जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे।
झूठी सेकुलर वैचारिक गुलामी से मुक्त होकर, नई आंखों से धर्म और देश को सशक्त बनाते हुए दुनिया को देखना होगा। अपने संकटों के हल तलाशना और विश्व मानवता को सुख के सूत्र देना हमारी जिम्मेदारी है और यही हमारी परम्परा रही है!
बगुले। की तरह आख बन्द कर चिनगारी को छोटी समझकर दावानल की संभावना को नकार देने वाला राष्ट्र एवं समाज कभी स्व-अस्मिता एवं अस्तित्व को बचाने में कामयाब नहीं होता।
शिक्षा प्रणाली की व्यापक राजनीति का निश्चित रूप से हिंदुओं और भारत की क्षमताओं पर अपरिवर्तनीय नकारात्मक प्रभाव पड़ा। सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का स्मारक स्तर हिंदुओं के कंधों पर रखा गया था।
हिंदुओं की हमेशा से ही जिम्मेदारी थी कि वे चुप रहें जानकर हिंदुओं की प्राकृतिक प्रवृत्ति, व्यक्तित्व और धार्मिक (आध्यात्मिक और धार्मिकता) प्रकृति ने बिना संगठन वाले समाज का निर्माण किया गया!
हिंदू मुसलीम भाई चारा के नकली नारे छद्म धर्मनिरपेक्षता की धुन पर नाचने के कारण आज हिंदू अपनी भूमि में जीवन, परिवार, बहनें, बेटियां, भूमि, मंदिर खो रहे हैं
क्या इसे और सहन किया जाना चाहिए? क्या यह नैतिक रूप से भी सही है ? यह व्यावहारिक रूप से हिंदुओं के साथ जो हो राहा है ,हिंदुओं को कब तक चुपचाप सहना होगा? कब तक हिंदुओं को अपनी भूमि, अपनी संस्कृति, अपने विश्वास और अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं करनी चाहिए?
अन्त में सिर्फ इतना जिन्दा कौम बने मुर्दा नहि, किसी का अपमान न हो पर अपने अपमान को भी गुगे बन कर न देखे वर्ना इतिहास आपको माफ नहि करेगा! बड़ी बहन प्रमिला पाण्डे जी को उनके साहसिक कार्य के लिय पुनः नमन !
*महेंद्र शुक्ल