-:पुष्यमित्र शुंग:- सनातन हिन्दू संस्कृति के ध्वजवाहक

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प्रस्तुति -:कुमार राकेश

इतिहास कभी मिथ्या नहीं हो सकता। इतिहास तो स्वयं एक अटल सत्य है जो काल चक्र के किसी पहलू में अंकित हो चुका है। किन्तु इतिहास को मिथ्या बनाया जाता है। इतिहास के तथ्य मर्दन का कार्य करते हैं वामपंथी इतिहासकार और शिक्षाविद।

भारत की सदैव से यह समस्या रही है कि यहाँ इतिहास के व्याख्याकारों में सभी प्रभावी विद्वान वामपंथी थे। इन्होंने इतिहास को ऐसे प्रदर्शित करने का प्रयास किया, जिससे पूरा भारतीय इतिहास जातिवाद और सामाजिक कुरीतियों से परिपूर्ण प्रतीत हो।

वास्तव में अंग्रेजों के समय से ही भारतीय इतिहास को तोड़ने मरोड़ने का कार्य संस्थागत रूप से प्रारम्भ हो चुका था, जो स्वतंत्रता के पश्चात भी अनवरत चलता रहा। मुगल काल में भी भारतवर्ष के महान इतिहास को कलंकित करने का कार्य हुआ। किन्तु मुगल इतने योग्य नहीं थे जो भारतीय सनातन का महात्म्य समझ पाएँ। उनके इस प्रयास को नमन करते हुए आधुनिक भारत के इतिहासकारों ने इन क्रूर मुगलों को इतिहास में एक श्रेष्ठ स्थान प्रदान किया है, जिसे हम आज भी ढो रहे हैं।

वामपंथी इतिहासकारों एवं बुद्धिजीवियों की एक साझा समस्या रही कि इन्हें ब्राह्मण से अथाह घृणा थी। ब्राह्मण शब्द सुनकर ही ये बुद्धिजीवी ऐसे विचलित हो जाते हैं, जैसे नेवले को देखकर सर्प। ब्राह्मण घृणा का ही परिणाम है- भारतवर्ष के एक महान शासक का चरित्रहरण। एक ऐसा शासक जिसने अखंड भारत के स्वप्न को पूर्ण करने के लिए न जाने कितने प्रयास किए। भारतवर्ष की अखंडता की सुरक्षा के लिए कितने ही युद्ध किए।

भारतवर्ष के इस महान शासक को इतिहास में मुगलों के दसवें हिस्से के बराबर भी स्थान नहीं दिया गया। उसका अपराध इतना ही था कि वह एक ब्राह्मण था और उसने भारतवर्ष में क्षीण हो रहे सनातन धर्म की पुनर्स्थापना का स्वप्न देखा।

यह शासक था पुष्यमित्र शुंग जिसने शुंग वंश की स्थापना की थी। इस लेख में हम उन मिथ्या तथ्यों और सूचनाओं पर विचार करेंगे जिनके आधार पर पुष्यमित्र को नरसंहारक और कट्टर कहा गया।

मौर्य वंश की दुर्बलता, भारतवर्ष पर बढ़ता संकट और पुष्यमित्र का उदय
जिस अखंड भारत की कल्पना आचार्य चाणक्य ने की थी, उनकी मृत्यु के बाद वह परिकल्पना धुॅंधली होने लगी। मौर्य वंश के शासक वैदिक धर्म के प्रति उदासीन होने लगे। चन्द्रगुप्त मौर्य, जैन धर्म का अनुयायी हो गया था। चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार ने स्वयं आजीविक सम्प्रदाय से अपनी दीक्षा ली। इसके बाद बिन्दुसार का पुत्र अशोक राजगद्दी पर विराजमान हुआ। भयंकर हिंसा करके अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाला सम्राट अशोक अहिंसक हो गया। उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। इसके बाद अशोक का पूरा जीवनकाल बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में व्यतीत हुआ।

जब पूरा विश्व सीमा विस्तार के संकट से जूझ रहा था तब अशोक की अहिंसा ने भारतवर्ष की वीरता पर गहरा आघात किया। अशोक ने 20 वर्षों तक एक बौद्ध सम्राट के रूप में शासन किया। इसी कारण पूरे भारतवर्ष का शासनतंत्र निर्बलता की भेंट चढ़ गया।

मौर्य वंश के शासकों का दूसरे पंथों की ओर झुकाव गलत नहीं था। यह उनका निजी विषय था, किन्तु शासनतंत्र की सहायता से भारतवर्ष के सनातन धर्म को क्षीण करने का कार्य करना गलत था। भारतवर्ष के वैदिक अस्तित्व पर बौद्ध पंथ की शिक्षाओं को थोपना गलत था। भारतवर्ष अहिंसा की चपेट में आता जा रहा था। भारतीय सनातन धर्म से विरक्ति की यह प्रक्रिया मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ तक चलती रही।

बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित में भी बृहद्रथ प्रतिज्ञादुर्बल कहा गया है क्योंकि राजगद्दी पर बैठते समय एक राजा अपने साम्राज्य की सुरक्षा का जो वचन देता है उसे पूरा करने में बृहद्रथ पूर्णतः असफल रहा।

मौर्य साम्राज्य निरंतर दुर्बल होता जा रहा था और बृहद्रथ के शासनकाल में यह दुर्बलता अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। अधिकांश मगध साम्राज्य बौद्ध अनुयायी हो चुका था।

इन सब के बीच यह खबर आई कि ग्रीक शासक भारतवर्ष पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं। पुष्यमित्र शुंग जो कि बृहद्रथ का सेनानायक था, इस बात से व्यथित था कि एक ओर शत्रु आक्रमण के लिए आगे बढ़ा चला आ रहा है और दूसरी ओर उसका सम्राट किसी भी प्रकार की कोई सक्रियता नहीं दिखा रहा है।

पुष्यमित्र ने अपने स्तर पर प्रयास प्रारम्भ किया। उसे अपने गुप्तचरों से शीघ्र ही यह सूचना मिली कि ग्रीक सैनिक बौद्ध भिक्षुओं के वेश में मठों में छुपे हुए हैं और कुछ बौद्ध धर्मगुरु भी उनका सहयोग कर रहे हैं। इस सूचना से व्यथित होकर पुष्यमित्र ने बौद्ध मठों की तलाशी लेने की अनुमति माँगी, किन्तु बृहद्रथ इसके लिए तैयार नहीं हुआ।

फिर भी पुष्यमित्र ने अपने स्तर पर कार्यवाही की। इस कार्यवाही के दौरान पुष्यमित्र और उसके सैनिकों की मुठभेड़ मठों में छिपे शत्रुओं के सैनिकों से हुई। कई शत्रु सैनिक मृत्यु के घाट उतार दिए गए। बृहद्रथ, पुष्यमित्र की इस कार्यवाही से रुष्ट हो गया। वह पुष्यमित्र से भिड़ गया।

एक ओर शत्रु भारत विजय का कुस्वप्न लिए बढ़ रहा था और यहाँ भारतवर्ष का सम्राट अपनी सीमाओं की सुरक्षा में लगे सेनानायक से संघर्ष में लगा हुआ है। अंततः सम्राट और सेनानायक के संघर्ष में सम्राट मृत्यु को प्राप्त होता है। सेना पुष्यमित्र के प्रति अनुरक्त थी। पुष्यमित्र शुंग को राजा घोषित कर दिया गया।

राजा बनने के तुरंत बाद पुष्यमित्र शुंग ने अपंग साम्राज्य को पुनर्व्यवस्थित करने के लिए तमाम सुधार कार्य किए। उसने भारतवर्ष की सीमाओं की ओर बढ़ रहे ग्रीक आक्रांताओं को खदेड़ दिया और भारतवर्ष से ग्रीक सेना का पूरी तरह से अंत कर दिया।

इस प्रकार पुष्यमित्र शुंग ने पुनः एक नए अखंड भारत की नींव रखी। एक ऐसे अखंड भारतवर्ष की जहाँ वैदिक सनातन धर्म अपनी मूल महानता की ओर लौटने लगा। बौद्ध पंथ की ओर जा चुके हिन्दू पुनः सनातन धर्म की शरण में लौट आए।

पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में वैदिक शिक्षा अपने चरम पर पहुँच गई। उसने राष्ट्र निर्माण के तत्वों में सनातन धर्म के महत्व को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। ऐसा कहा जाता है कि पुष्यमित्र के शासनकाल में मगध साम्राज्य के लगभग सभी निवासियों तक वैदिक शिक्षा की पहुँच थी। इसी का परिणाम था कि भारतवर्ष पुनः अपनी सनातन महानता को प्राप्त करने लगा था।

मौर्य साम्राज्य के शिथिल हो जाने के कारण केंद्रीय नियंत्रण में भारी कमी आ गई, जिससे मगध साम्राज्य के कई हिस्सों में सामन्तीकरण की प्रवृत्ति प्रबल होती जा रही थी। पुष्यमित्र ने शासक बनने के बाद शासन-व्यवस्था की इस दुर्बलता को दुरुस्त करने का कार्य किया गया।

पुष्यमित्र के शासनकाल में राज्यपाल और सह-शासक नियुक्त करने की व्यवस्था प्रारम्भ हुई। शासन की सबसे सूक्ष्म इकाई के रूप में ग्रामों का विकास किया गया। इस प्रकार पुष्यमित्र ने न केवल सनातन धर्म की स्थापना की अपितु शासन पद्धति को सुव्यवस्थित करने का कार्य भी भली-भाँति किया। यही कारण था कि पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार की दक्षिणतम सीमा तक और पश्चिम में सियालकोट से लेकर पूर्व में मगध तक विस्तृत था।

प्रस्तुति -: कुमार राकेश

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