अध्यक्ष बनने से क्यों इंकार कर रहे हैं राहुल?

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त्रिदीब रमण
त्रिदीब रमण

सिर्फ इसीलिए आंधियों ने हर मुमकिन तुझे डराया होगा

एक दीया रौशन जो तेरी आंखों में उसे नज़र आया होगा’

राहुल गांधी सुप्त प्रायः कांग्रेस में एक नई जान फूंकने की मशक्कत में जुटे हैं, ड्राईंग रूम से निकल कर कांग्रेसी नेतागण सड़क पर उतरने की हिम्मत दिखा रहे हैं, पर बावजूद इसके राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष पद का कांटों भरा ताज अपने सिर पर रखने को तैयार नहीं। गांधी परिवार से जुड़े सूत्र खुलासा करते हैं कि राहुल ने अपनी ओर से अध्यक्ष पद के लिए दो नाम सामने रखे हैं, इनमें से एक नाम राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का है, दूसरा नाम उन्होंने अपनी बहन प्रियंका का आगे किया है। अशोक गहलोत राजस्थान छोड़ना नहीं चाहते, वे जानते हैं कि एक बार जो उन्होंने गद्दी खाली की तो सचिन पायलट की उड़ान को फिर कोई रोक नहीं सकता, सो गहलोत भी इस बात की वकालत में जुटे हैं कि अध्यक्ष तो राहुल को ही होना चाहिए, अगर वे इसके लिए एकदम तैयार नहीं हैं तो फिर यह बागडोर प्रियंका को सौंपी जा सकती है। लेकिन सोनिया गांधी की राय इस मामले में थोड़ी अलग दिख रही है, सोनिया की अंत तक कोशिश यही रहेगी कि राहुल पार्टी संभाले बतौर अध्यक्ष, अगर राहुल इस पर नहीं मानते हैं तो ऐसी सूरत में सोनिया गांधी इस जिम्मेदारी की निरंतरता को धार दे सकती हैं यानी फिलहाल अध्यक्षीय कुर्सी वह अपने पास ही रख सकती हैं। राहुल अध्यक्षीय जिम्मा लेने से हिचकिचा रहे हैं तो उन्हें जानने वाले इसकी दो मुख्य वजह बता रहे हैं, एक तो उन्हें लगता है कि नेशनल हेराल्ड मामले में कभी भी चार्जशीट आ सकती है और ईडी उन्हें गिरफ्तार करने की हद तक जा सकती है। उनकी दूसरी चिंता कांग्रेस के अपने चुनाव विश्लेषक सुनील कानूगोलू की वह रिपोर्ट है जिसमें वे हालिया विधानसभा चुनावों और 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर सवाल उठा रहे हैं। जो भी हो इस मामले में आखिरी फैसला तो राहुल का ही होगा जो भारतीय सियासत की गंभीरता को किंचित अब समझने लगे हैं।

    ईडी की पूछताछ में मज़े में हैं राहुल

राहुल गांधी ईडी की पूछताछ में बेहद संयत और षांत नज़र आ रहे हैं। उस कमरे में जहां नेशनल हेराल्ड के मामले में राहुल से पूछताछ होती है, इस काम को ईडी के तीन अफसर अंजाम देते हैं। राहुल गांधी कुछ इतने इत्मीनान से सवालों के जवाब देते हैं कि ’अक्सर सवाल पूछने वाले अफसर थक जाते हैं, पर राहुल के लबों पर मुस्कान बनी रहती है। अधिकारी स्वयं अपनी सुविधा के लिए पूछताछ के बीच एक-एक कर ब्रेक ले लेते हैं।’ यह बात पूछताछ के तीसरे दिन की है, राहुल ने अभी-अभी अपना लंच खत्म किया है और उन्होंने अफसरों से इजाजत मांगी कि उन्हें बाथरूम जाना है। इस पर एक अफसर ने मुस्कुराते हुए राहुल से जानना चाहा कि ’वे पिछले कुछ समय से गौर कर रहे हैं कि खाना खाने के तुरंत बाद वे बाथरूम चले जाते हैं और वहां आधा घंटा लगा देते हैं,’ उस अफसर ने हंसते हुए राहुल से पूछा कि ’क्या आप वहां सिगरेट पीने जाते हैं?’ इस सवाल का जवाब भी राहुल ने मुस्कुराते हुए दिया-’हां, लंच-डिनर के बाद एक सिगरेट सुलगा लेता हूं, इससे मेरा स्ट्रेस कम होता है।’ यह तो हर फिक्र को धुएं में उड़ाने वाली बात हो गई।

यशवंत से क्यों नाराज़ हैं दीदी

ममता बनर्जी विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा से किंचित खफा-खफा नज़र आ रही हैं, ममता के करीबी खुलासा करते हैं कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी घोषित होने से पहले यशवंत ने ममता के समक्ष दावा किया था कि ’उनके अन्य पार्टियों के नेताओं से भी बेहद अच्छे ताल्लुकात हैं, वे उन्हें समर्थन देने के लिए मना लेंगे।’ सूत्रों की मानें तो यशवंत ने अपने दोस्तों की सूची में पहला नाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का लिया और दीदी से कहा कि नीतीश से उनकी पुरानी मित्रता है, दूसरा नाम उन्होंने चंद्रबाबू नायडू का लिया था। दीदी को उम्मीद थी कि इसके अलावा भी यशवंत कुछ अन्य वैसे दलों से समर्थन जुटा लेंगे जिनकी निष्ठाएं भाजपा के साथ हैं। पर शुरूआत ही फीकी रही। सूत्रों की मानें तो यशवंत ने नीतीश को दो दफे फोन किया पर नीतीश ने फोन ही नहीं उठाया। तीसरी बार में बातचीत हो पाई, यशवंत ने नीतीश से कहा ’जब उड़िया-उड़िया को सपोर्ट कर सकता है, तो फिर बिहारी-बिहारी को क्यों नहीं?’ इस पर नीतीश ने उनसे दो टूक कह दिया कि ’द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी घोषित करने से पहले ही पीएम और अमित षाह दोनों ने उन्हें फोन किया था और इस नाम पर मेरी सहमति मांगी थी, मैंने हां कह दिया था, अब कैसे ’बैक आउट’ करूं?’ इस पर यशवंत कुछ कह नहीं पाए और नीतीश को जो बोलना था, वे बोल चुके थे।

विपक्षी एका का सिरमौर कौन?

विपक्षी एका का घोशित सिरमौर बनने की लड़ाई में सोनिया और ममता के बीच जबर्दस्त घमासान छिड़ा था, जिसमें जाहिरा तौर पर सोनिया ने ममता को धोबिया पाट दे दिया है। राष्ट्रपति चुनाव के बहाने ममता बनर्जी पिछले काफी समय से भाजपा विरोधी दलों को एक मंच पर लाने में जुटी थीं, इस बहाने दीदी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी एंट्री भी चाहती थीं। ममता ने पहली मीटिंग बुलाई उसमें 17 विरोधी दलों का जमावड़ा जुटा, दूसरी मीटिंग शरद पवार ने बुलाई, पर इस मीटिंग को आहूत करने वाले पवार के पत्र में ममता द्वारा बुलाई गई पहली मीटिंग का जिक्र तक नहीं था, इस बात से ममता बेतरह आहत हुईं। दीदी की नाराज़गी इस कदर थी कि विपक्षी एका की टीम यशवंत के लिए एक एजेंट भी तय नहीं कर पाईं। इस काम को पर्दे के पीछे से अंजाम दिया सुधीन्द्र कुलकर्णी ने, इससे यशवंत की संभावनाओं को और भी ग्रहण लग गए। राष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर विपक्षी दलों ने जरूर एक अभियान समिति गठित की पर विडंबना देखिए कि इसमें तृणमूल कांग्रेस का कोई भी सदस्य शामिल नहीं था, जबकि कांग्रेस के जयराम रमेश, केके शास्त्री और अडवानी के पूर्व सहयोगी सुधीन्द्र कुलकर्णी इस अभियान समिति में लिए गए थे। सोनिया ने बड़ी चतुराई से ममता को बंगाल तक ही सीमित कर दिया है, जो कहीं न कहीं इस बात का ऐलान भी है कि विपक्षी एका की सबसे बड़ी सिरमौर फिलहाल तो सोनिया ही हैं।

पवार किधर हैं?

महाराष्ट्र में महाअघाड़ी गठबंधन की सरकार बनवाने में एनसीपी नेता शरद पवार की एक महती भूमिका रही है, पर ताजा महाराष्ट्र संकट के दौरान पवार की निष्क्रियता संदेह पैदा करने वाली है। जैसे ही उद्धव सरकार के समक्ष संकट पैदा हुआ तो पत्रकारों ने पवार से पूछा कि ’इस संकट को मद्देनज़र रखते वे उद्धव से कब मिलेंगे,’ तो पवार का जवाब था कि ’अभी वे राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष का उम्मीदवार तय करने में व्यस्त हैं,’ फिर उन्होंने आगे कहा कि ’उद्धव अगर समय देंगे तो मिल लूंगा’, पर उन्होंने अपनी बातों में एक बात और जोड़ दी कि ‘यह शिवसेना का अंदरूनी मामला है।’ दिलचस्प तो यह है कि जब तक उद्धव ने अपना आधिकारिक सीएम आवास ’वर्षा’ छोड़ नहीं दिया तब तक पवार अपने ‘कुकुन’ से बाहर नहीं निकले। सूत्रों की मानें तो इस पूरे घटनाक्रम में पवार की चिंता अपनी पार्टी को लेकर थी, उन्हें सूचना मिल चुकी थी कि भाजपा की नज़र एनसीपी में भी दोफाड़ पर है, सो पवार पूरा समय अपने कुनबे को बचाए रखने की जुगत भिड़ाते रहे।

एकनाथ किस एक के आदमी हैं

एकनाथ शिंदे की महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस से दांत-कटी रोटी वाली दोस्ती है, दोस्ती के तार इतने गहरे हैं कि महाअघाड़ी सरकार में मंत्री रहते हुए भी भाजपा के साथ सरकार बनाने का खटराग वे अलापते रहे। विधानसभा का पिछला चुनाव भाजपा व शिवसेना ने मिल कर लड़ा था, पर जब बात मुख्यमंत्री पद की आई तो दोनों दलों में कुट्टी हो गई, शिवसेना अपनी मूल प्रवृत्तियों के विरूद्ध कांग्रेस व एनसीपी के साथ जाकर सरकार में आ गई। यही बात तब से भाजपा को नागवार गुज़र रही है, सच पूछिए तो वह शिवसेना का हाल भी लोजपा जैसा करना चाहती है। वैसे भी भाजपा की मंशा बेहद साफ है कि हिंदुत्व की झंडाबरदार पार्टी बस अकेले भाजपा ही रहे। अब सवाल उठता है कि ’इतना कुछ हो जाने के बाद भी भाजपा के हाथों में खेल रहे एकनाथ शिंदे अपने समर्थक विधायकों की सूची गवर्नर को क्यों नहीं भेज पा रहे हैं, क्यों नहीं वे उद्धव को ’फ्लोर टेस्ट’ के लिए ललकार रहे हैं? क्यों नहीं बहुमत के बावजूद अब तक वे सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं?’ सूत्रों की मानें तो शिव सैनिकों से भावुक अपील कर उद्धव ने सेना के बागी विधायकों के समक्ष धर्मसंकट की स्थिति पैदा कर दी है, उद्वेलित शिव सैनिक राज्य भर में ऐसे बागी विधायकों के आवास और दफ्तर को निशाना बना रहे हैं। शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे का वह वीडियो भी सोशल मीडिया पर खासा वायरल हो रहा है जिसमें वे ये कहते नज़र आ रहे हैं कि ’अगर कोई शिवसेना विधायक पार्टी से गद्दारी करे तो उसे मनाने की कोशिश मत करो, बल्कि उसकी कुटाई करो।’ क्या उद्धव भी मन ही मन यही चाहते हैं?

अखिलेश का दांव कितना चलेगा?

यूपी में इन दिनों यह कहावत सिर चढ़ कर बोल रही है कि शिवपाल यादव ने जिसे भी अपना सहारा बनाया है वह राजनीति में बेसहारा हो गया है, इसकी ताजा मिसाल आजम खां को गिनाया जा रहा है। वैसे अखिलेश पहले ही भांप चुके थे कि उनके परिवार में ऐसा कौन है जिसमें उन्हें  अभी से शिवपाल का अक्स दिख रहा है, तब घूम-फिर कर उनकी निगाहें अपने रिश्ते के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव पर टिक आई। तो उन्होंने आनन-फानन में धर्मेंद्र को आजमगढ़ उप चुनाव में मैदान में उतार दिया। सूत्रों की मानें तो धर्मेंद्र बदायूं छोड़ कर आजमगढ़ आना नहीं चाहते थे क्योंकि पिछले कुछ समय से वे बदायूं के ’विकास पुरूष’ कहलाने लगे थे, यही बात अखिलेश को नागवार गुजर रही थी। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में धर्मेंद्र अपनी बदायूं सीट बचा नहीं पाए थे। बदायूं का सामाजिक व जातीय समीकरण सपा के हक में जाता है, इसे समाजवादियों का गढ़ भी कहा जाता है। अखिलेश 2024 के चुनाव में बदायूं से एक बार फिर उद्योगपति सलीम शेरवानी को मैदान में उतारना चाहते हैं। रही बात धर्मेंद्र की तो अगर वे आजमगढ़ उप चुनाव जीत जाते हैं तो फिर यह सीट उनकी पक्की, हार जाते हैं तो उनकी राह थोड़ी मुश्किल हो जाएगी।

और अंत में

ज्वॉइंट ऑपोजिशन पार्टी की पहली मीटिंग में झारखंड मुक्ति मोर्चा का एक अहम प्रतिनिधि भी इसमें शामिल था, पर विपक्ष के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तय करने के लिए जैसे ही दूसरी मीटिंग आहूत हुई और उसमें बतौर उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का नाम फाइनल हुआ, झामुमो उस मीटिंग से नदारद था। झामुमो को पता चल चुका था कि एनडीए द्रौपदी मुर्मू को अपना उम्मीदवार घोषित करने वाला है, और द्रौपदी मुर्मू का विरोध हेमंत सोरेन, उनके परिवार या पार्टी के लिए आसान नहीं रहने वाला है। क्योंकि मुर्मू भी उसी संथाल आदिवासी परिवार से आती हैं जो जाति हेमंत सोरेन परिवार की है। हेमंत के पिता शिबू सोरेन संथालों के सबसे बड़े नेताओं में शुमार होते हैं, सो द्रौपदी मुर्मू की खिलाफत हेमंत सोरेन के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था।

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