अल्मोड़ा, 28 सितंबर 2020। वैसे तो लगभग सभी बीमारी के लिए प्राकृतिक चीजों का सेवन ज्यादा सही होता है और हमारें यहां आयुर्वेद में एक से बढ़कर एक जड़ी- बूटियां है जो बड़ी से बड़ी रोग का सफाया करती है।
ऐसा ही एक पौष्टिक फल है जिसे कुमाऊं में पांगर के नाम से जाना जाता है। इस फल के आवरण पर अनगिनत कांटे होते हैं। इसके औषधीय गुणों से अनजान होने के कारण इसका उचित प्रयोग नहीं हो पा रहा है।
पांगर उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत रूप में पाया जाता है। स्थानीय लोग इसे पांगर के रूप में जानते हैं। चेस्टनेट मीठा फल होने के साथ औषधीय गुणों की खान है। वैज्ञानिक बताते हैं कि पांगर गठिया रोग के इलाज के लिए कारगर दवा के रूप में लिया जाता है। ब्रिटिश काल में मध्य यूरोप से भारत आया यह फल अंग्रेजों के बंगलों और डाक बंगलों में लगाया गया था। ऐसे ही कुछ वृक्ष मानिला के फॉरेस्ट डाक बंगले में आज भी हैं। जो इन दिनों फलों से लदे हुए हैं।
आपको बता दें कि चेस्टनेट का वास्तविक नाम केस्टेनिया सेटिवा है। फेगसी प्रजाति के इस वृक्ष की विश्वभर में लगभग 12 प्रजातियां हैं। लगभग 1500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उगने वाले इस वृक्ष की औसत उम्र 300 सालों से भी अधिक होती है। इस वृक्ष का फल औषधीय गुणों से भरपूर है, जिसके सेवन से गठिया रोग को ठीक करने में मदद मिलती है।
300 से 400 रुपये तक बिकता है
यह 300 से लेकर 400 रुपये प्रति किलो तक बिकता है। इसके पेड़ में जून जुलाई के दौरान फूल आते हैं तथा सितंबर अक्टूबर तक फल पक जाते हैं। जौरासी रेंज के वन क्षेत्राधिकारी मोहन राम आर्या के अनुसार वन विभाग के मानिला स्थित वन विश्राम गृह के परिसर में कुछ वृक्ष आज भी मौजूद हैं, जिनकी उम्र सौ वर्षों से भी अधिक है। उन्होंने बताया कि इस वृक्ष का फल बाहर से नुकीले कांटों की परत से ढका रहता है। फल पकने के बाद यह स्वतः गिर जाता है। इसके कांटेदार आवरण को निकालने के बाद इसके फल को निकाल लिया जाता है।
ऐसे किया जाता है सेवन
इसे हल्की आंच में भूना या उबाला जाता है। फिर इसका दूसरा आवरण चाकू से निकालने के बाद इसके मीठे गूदे को खाया जाता है।