देश मे जातीय टकराव उफान पर है। गत 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने एस.सी. एस.टी. प्रिवेंशन आफ एट्रोसिटी एक्ट मे गिरफ़्तारी की प्रक्रिया मे कुछ नये प्रावधान कर दिये। गिरफ़्तारी के लिये सामान्य व्यक्ति के लिये पुलिस अधीक्षक तथा शासकीय व्यक्ति के लिये उसके नियोक्ता अधिकारी की लिखित अनुमति, एफ.आई.आर. के पहले प्राथमिक जाँच तथा आवश्यकतानुसार अग्रिम ज़मानत के आदेश दिये गये। पूरा विपक्ष सुप्रीम कोर्ट पर तो नहीं लेकिन मोदी सरकार पर टूट पड़ा। 2 अप्रैल को दलित संगठनों का भारत बंद हुआ जिसमें भारी तोड़फोड़ हुई। पहले से ही वेमुला एवं ऊना कांड से दलित विरोधी होने का आरोप सह रही मोदी सरकार घबरा उठी। बिजली की गति से पूरे विपक्ष के पूर्ण सहयोग से बीजेपी ने 6 अगस्त को लोकसभा तथा 9 अगस्त को राज्य सभा से संशोधन पारित करवा कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पानी फेर दिया। यह पक्ष विपक्ष के नेताओं की दलितों के प्रति संवेदनशीलता नहीं अपितु दलित वोटों का शुद्ध स्वार्थ था।
राजनीतिक पार्टियों को विशेष रूप से बीजेपी को यह आशंका थी कि इस क़दम से सवर्ण वर्ग कुपित हो सकता है परन्तु उन्हें यह विश्वास था कि यह असंतोष क्षणिक होगा। एस.सी. एस.टी. एक्ट यद्यपि पूर्व जैसा ही हो गया है परन्तु ज़ोर शोर से यह ग़लत प्रचार किया जा रहा है कि एफ.आई.आर. होते ही तुरन्त गिरफ़्तारी हो जायेगी। मंडल आयोग के 1990 के विरोध के बाद सवर्णो का उससे भी अधिक व्यापक आन्दोलन शुरू हो गया है। 6 सितंबर को प्रभावी भारत बंद हुआ और छिटपुट विरोध अभी भी जारी है। दबे स्वर मे आऱक्षण व्यवस्था पर प्रश्न भी उठाये जा रहे हैं। नेताओं ने वोटों का हिसाब किताब शुरू कर दिया है।
जाति व्यवस्था भारत तथा हिन्दू धर्म में एक अनोखा तथ्य है। वैसे सभी धर्मों मे आन्तरिक विभाजन है परन्तु हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था बहुत व्यापक और इसके कुछ वर्गों के लिये कष्टकारी है। सर्वप्रथम समाज विभाजन का एक हल्का संकेत वेदों मे मिलता है। इसके बहुत वर्षों के बाद मनु ने मनुस्मृति में समाज को चार वर्णों मे बाँट दिया जिसका विभाजनकारी प्रभाव भी समाज पर हुआ। इसके उपरांत धीरे धीरे अनेक जातियाँ और उपजातियाँ बनती गई जिनमें अधिकांश व्यवसायों पर आधारित थी। इनके ऊँचे नीचे होने का अनुक्रम बहुत जटिल होता गया। कुछ उपजातियाँ पूरी की पूरी सामाजिक पैमाने पर ऊपर या नीचे चली जाती थी। मुस्लिम और अंग्रेज़ों के अधीन रह कर जाति व्यवस्था और मज़बूत हो गई तथा अछूतों के प्रति और अधिक पूर्वाग्रह हो गया। 1891 में अंग्रेज़ों द्वारा की गई जनगणना मे भारत की तत्कालीन केवल 20 करोड़ की जनसंख्या मे 3000 जातियाँ और 10,000 उपजातियाँ पाई गईं। जनगणना का और विभाजनकारी प्रभाव हुआ। महात्मा गांधी ने जाति प्रथा का संयमित विरोध किया तथा हरिजन नाम देकर तथाकथित निम्न जातियों को सम्मानजनक स्थान दिया। आम्बेडकर का विरोध अधिक उग्र परन्तु तार्किक था और वे इनके लिये क़ानूनी संरक्षण चाहते थे।
स्वतंत्रता के पश्चात संविधान मे निम्न जातियों को अनुसूचित जाति तथा जनजाति घोषित किया गया एवं उनके अत्यधिक पिछड़ेपन को देखते हुए 10 वर्ष के लिये उन्हें विधायिका, सरकारी सेवा और शिक्षा मे आरक्षण दिया गया। यह अवधि हर 10 वर्षों मे संसद द्वारा बढ़ा दी जाती है। इन वर्गों के संरक्षण के लिये प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट्स एक्ट, 1955 बनाया गया। 1989 मे एक और सख़्त एस.सी. एस.टी. (प्रिवेंशन आफ एट्रोसिटी) एक्ट पारित किया गया जो 31 मार्च, 1995 को लागू हो सका। इसमें जमानत तथा सज़ा के कड़े प्रावधानों के साथ ही विशेष न्यायालयों एवं पीड़ित को राहत देने का भी प्रावधान है। 4 मार्च, 2014 को इसमें कुछ और अध्याय जोड़े गये। सुप्रीम कोर्ट ने अभी एफ.आई.आर. के पहले जाँच करने तथा ज़मानत मे कुछ परिवर्तन करने के आदेश दिये जिसे संसद ने ख़ारिज कर दिया। सवर्ण इसी का विरोध कर रहे है।
सवर्ण या उच्च जातियों ने अपनी ऐतिहासिक गल्तियों के कारण एस.सी. एस.टी. वर्ग के लिये आरक्षण का कभी विरोध नहीं किया यद्यपि उन्होंने पिछड़ी जातियों के आरक्षण का विरोध किया था। लेकिन एस.सी. एस.टी. के लिये क्रम से पूर्व पदोन्नति का अब अवश्य कड़ा विरोध हो रहा है। इसी प्रकार इस वर्ग मे आरक्षण से आगे बढ़ गये लोगों के बच्चों को आरक्षण देने का भी विरोध हो रहा है।
सामाजिक एवं राजनीतिक सामंजस्य बनाये रखना अत्यंत आवश्यक है। उचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राजनीतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों मे परस्पर चर्चा हो तथा इस एक्ट मे सामान्य आपराधिक न्याय के सिद्धान्त लागू कर इसमें कुछ स्थितियों मे अग्रिम ज़मानत का विकल्प खुला कर देना चाहिये। इस एक्ट के दुरूपयोग को रोकने की क्रियाविधि भी होनी चाहिये। पदोन्नति मे आरक्षण क्षणिकाएँ भी कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है। यहाँ हमें ध्यान रखना है कि एस.सी एस.टी. को आरक्षण यथावत मिलते रहना चाहिये और उन्हें शिक्षा के क्षेत्र मे तथा शासन की अनेक योजनाओं मे आर्थिक लाभ मिलते रहना चाहिये और वह भी तब तक जब तक यह वर्ग अन्य वर्गों के समकक्ष नहीं हो जाता। लेकिन अब समय आ गया है कि इस वर्ग के क्रीम लेयर के लोगों को ये सुविधाएँ न दी जाए ताकि निम्नतम स्तर पर उन्नयन हो सके।
प्रश्न यह है कि क्या राजनीतिक दल इस पहल का साहस कर सकेंगे या फिर देश सुप्रीम कोर्ट का ही मुँह ताकता रहेगा।
(एन के त्रिपाठी, मालवांचल विश्वविद्यालय, इंदौर के कुलपति व पूर्व आई.पी.एस.। ये लेखक के अपने विचार हैं।)