जीवन और संस्कार

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 प्रस्तुति -कुमार राकेश।
👉एक बार एक राजा अपने सहचरों के साथ क्रीड़ा करने जंगल में गया था।वहाँ किसी कारण से एक दूसरे से बिछड गये और एक दूसरे को खोजते हुये राजा एक नेत्रहीन संत की कुटिया में पहुँचकर अपने विछडे हुये साथियों के बारे में पूंछा।नेत्रहीन संत ने कहा महाराज सबसे पहले आपके सिपाही गये हैं,बाद में आपके मंत्री गये,अब आप स्वयं पधारे हैं।इसी रास्ते से आप आगे जायें तो मुलाकात हो जायेगी।

👉संत के बताये हुये रास्ते में राजा ने घोडा दौड़ाया और जल्दी ही अपने सहयोगियों से जा मिला और नेत्रहीन संत के कथनानुसार ही एक दूसरे से आगे पीछे पहुंचे थे।यह बात राजा के दिमाग में घर कर गयी कि नेत्रहीन संत को कैसे पता चला कि कौन किस पद वाला जा रहा है।लौटते समय राजा अपने अनुचरों को साथ लेकर संत की कुटिया में पहुंच कर संत से प्रश्न किया कि आप नेत्र विहीन होते हुये कैसे जान गये कि कौन जा रहा है कौन आ रहा है?राजा की बात सुन कर नेत्रहीन संत ने कहा महाराज मनुष्य की पात्रता का ज्ञान नेत्रों से नहीं उसकी बातचीत से होती है।

👉सबसे पहले जब आपके सिपाही मेरे पास से गुजरे तब उन्होने मुझसे पूछा किऐ अंधे इधर से किसी के जाते हुये की आहट सुनाई दी क्या?तो मैं समझ गया कि यह संस्कार विहीन व्यक्ति छोटी पदवी वाले सिपाही ही होंगे।जब आपके मंत्री जी आये तब उन्होंने पूछाबाबा जी इधर से किसी को जाते हुये, तो मैं समझ गया कि यह किसी उच्च पद वाला है,क्योंकि बिना संस्कारित व्यक्ति किसी बडे पद पर आसीन नहीं होता,इसलिये मैंने आपसे कहा कि सिपाहियों के पीछे मंत्री जी गये हैं।

👉जब आप स्वयं आये तो आपने पहले प्रणाम करके अत्यंत आदर पूर्वक कहा संत महाराज आपको इधर से निकल कर जाने वालों की आहट तो नहीं मिली मैं समझ गया कि आप राजा ही हो सकते हैं।क्योंकि आपकी वाणी में आदर सूचक शब्दों का समावेश था और दूसरे का आदर वही कर सकता है जिसे दूसरों से आदर प्राप्त होता है।क्योंकि जिसे कभी कोई वस्तु नहीं मिलती तो वह उस वस्तु के गुणों को कैसे जान सकता है।

👉 दूसरी बात यह संसार एक वृक्ष स्वरूप है जैसे वृक्ष में डालियाँ तो बहुत होती हैं पर जिस डाली में ज्यादा फल लगते हैं वही झुकती है।इसी अनुभव के आधार में मैं नेत्रहीन होते हुये भी सिपाहियों,मंत्री और आपके पद का पता बताया।राजा संत अनुभव से प्रसन्न होकर वापस राजमहल आया।

दोस्तों, आजकल हमारा परिवार संस्कार विहीन होता जा रहा है। थोडा सा पद,पैसा व प्रतिष्ठा पाते ही दूसरे की उपेक्षा करते है, जो उचित नहीं है।मधुर भाषा बोलने में किसी प्रकार का आर्थिक नुकसान नहीं होता है।अतः मीठा बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिये।

*सदैव प्रसन्न रहिये ! जो प्राप्त है वही पर्याप्त है ! !

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