संस्कृति : लोकमंथन (20)- लोक परम्पराओं में संस्कार और कर्तव्य बोध-1
संदर्भ-भारतीय समाज मे कामगार जातियां)
पार्थसारथि थपलियाल।
( 21 सितंबर से 24 सितंबर 2022 तक श्रीमंता शंकरदेव कलाक्षेत्र गोहाटी में प्रज्ञा प्रवाह द्वारा तीसरे लोकमंथन का आयोजन किया गया। प्रस्तुत है लोकमंथन की उल्लेखनीय गतिविधियों पर सारपूर्ण श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुति)
24 सितंबर को वैचारिक चिंतन सत्र का आरंभ “लोक परंपराओं में संस्कार और कर्तव्य बोध” विषय से आरम्भ हुआ। चिंतन का संदर्भ विशेष रूप से भारतीय समाज में कामगार जातियों को लेकर था। सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे नागालैंड सरकार में उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं जनजातीय कार्य मंत्री श्री टेमजेन इम्ना अलोंग। विशेषज्ञ वक्ता थे- पेसिफिक ग्रुप यूनिवर्सिटी, उदयपुर में प्रबंधन एवं संरक्षण विभाग के समूह अध्यक्ष, प्रोफेसर भगवती प्रकाश शर्मा और शिक्षाविद व बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी आचार्य श्री बनवारी जी।
हमारे संस्कार ही लोक परम्पराओं में परिलक्षित होते हैं और लोक परम्पराएं ही हमें कर्तव्य बोध से अवगत कराती हैं। भारत में किसी कार्य में निपुण लोगों का समूह जब उसी कार्य में सफलता प्राप्त करता रहा तो लोग उन्हें कार्य से जानने लगे और वही उनकी जाति हो गई। जैसे ज्योतिष का काम करने वाला जोशी, पंडिताई करने वाला पंडित, सोने का काम करने वाला सुनार, सुरक्षा का काम करनेवाला प्रतिहार या परिहार आदि आदि। सत्र का यह विषय बहुत ही रोचक और ज्ञान से भरपूर था। सत्र के संचालक शंकर जी स्वयं वाक्पटु हैं इस सत्र का प्रारूप संवाद शैली में होने के कारण विषय की पुनरावृत्ति, अटकाव और भटकाव की स्थिति नही आयी अन्यथा इस प्रकार के विषयों की अभिव्यक्ति में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष होने की आशंका बनी रहती है।
प्रोफेसर भगवती प्रकाश शर्मा जिनके पास 42 वर्षों का अध्यापन अनुभव है और भारतीय जीवन दर्शन का सांगोपांग तत्वबोध उन्हें है। वे गौतमबुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। इसी प्रकार आचार्य बनवारी जी दर्शन शास्त्र के ज्ञाता हैं। वे अपने जीवन के आरंभिक दिनों में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन भी कर चुके हैं। टाइम्स इंडिया ग्रुप समग्र के संपादक रहे। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं।
लोक, संस्कृति और शास्त्र बोध पर प्रोफेसर भगवती प्रकाश शर्मा ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा- सामान्यतः यह समझा जाता है कि जो ज्ञान शास्त्रों में है वह लोक में नही है। मैं समझता हूँ कि शास्त्रीय ज्ञान और लोकज्ञान में कोई अंतर नही है। इसे उदाहरण से समझें। गाँव में यदि कोई आदमी गमछा या तौलिया दाएं कंधे पर रख कर तालाब की ओर जा रहा हो तो देखने वाले समझ जाते है कि वह व्यक्ति किसी शोक प्रसंग में तालाब पर नहाने करने जा रहा है। यदि वह व्यक्ति बाएं कंधे पर गमछा/तौलिया/ लेकर जा रहा हो तो देखनेवाले यही समझते हैं कि वह व्यक्ति नहाने जा रहा है। ब शास्त्रीय ज्ञान को समझें- ब्रह्मसूत्र में दो शब्द मिलते हैं सव्य और अपसव्य। श्राद्ध या तर्पण करते समय जब यज्ञोंपवीत/जनेऊ को दाएं कंधे पर रख कर श्राद्धकर्म किया जाता है जिसे अपसव्य कहते हैं। सामान्यतः यज्ञोंपवीत बाएं कंधे के ऊपर होता है, उसे सव्य कहते हैं।
जनजातीय समुदाय के बारे में बाकी समाज की धारणा होती है कि न जानें उनकी क्या क्या परम्पराएं होती होंगी। यदि आप जनजातीय समाज को निकटता से समझने का प्रयास करेंगे तो समझ में आ जायेगा कि इनमे अंतर नही है।
त्रिपुरा में एक जनजाति है इनमें आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष अष्टमी के दिन से 7 दिनों तक खर्ची पूजा होती है। इस पूजा के पीछे अलग से एक कहानी है, उसमें न जाकर परंपरा पर ही बात करते हैं। इन 7 दिनों में 14 देवताओं की पूजा की जाती है। इनके नाम हैं-हर, उमा, हरि, माँ, वाणी, कुमार, गणम्मा, विधि, पृथ्वी, समुद्र, गंगा, शिखि, काम और हिमाद्रि। इनमें 11 मूर्तियां अष्टधातु की होती हैं जबकि हर, उमा और हरि की मूर्तियां सोने की होती हैं। मंदिर के पुजारी को चंताई कहते हैं। यह पूजा उत्सव के रूप में मनाई जाती है। बस्तर के जनजातीय समाज में दशहरा का उत्सव 75 दिनों तक मनाया जाता है। सुदूर पश्चिम में राजस्थान के भील समाज मे गवरी (गौरी) नृत्य होता है। यह आयोजन भाद्रपद मास में शुरु होता है जो 35 दिनों तक चलता है। इस दौरान कोई भी पुरुष अपने घर मे नही रहता। वे बहमश्चर्य का पालन करते है, हरी सब्जी नही खाते हैं। वे लोग गांव गांव जाकर विभिन्न देवी देवताओं के प्रसंगों को नाटक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इनमें कृष्ण लीला, महिषासुरमर्दिनी, शिव पार्वती अथवा समसामयिक विषयों पर नृत्य नाटिका खेलते हैं।
प्रसंग लगातार….2