
पार्थसारथि थपलियाल
अपने मंतव्य स्थापित करते भ्रामक शब्द – डॉ. वैद्य
स्थान था कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का सभागार। इस सभागार में पंचनद शोध संस्थान का दो दिवसीय मंथन शिविर चल रहा था। विद्वान वक्ताओं में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सह सरकार्यवाह मा. डॉ. मनमोहन वैद्य, प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक मा. जे नंदकुमार जी, पंचनद के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर बृजकिशोर कुठियाला मंच पर शोभायमान थे। संभागियों में भी एक से एक बुद्धीचेता भाग ले रहे थे। भारतीयता के स्व (अपना) पर माननीय डॉ. मनमोहन वैद्य जी का पाथेय चल रहा था। उन्होनें उन आधुनिक शब्दों पर संभागियों को जागृत करने के लिए उन शब्दों के वास्तविक संस्कृति को उद्घाटित किया।
सेकुलर- यह शब्द इन दिनों भारत में बहुत चर्चित है। न जाने कोई इस शब्द की संस्कृति को कोई सही जानता भी है या नही। सेकुलर शब्द का अर्थ है जो धर्म से संबंधित न हो। भारतीय संस्कृति एक धर्म प्राण संस्कृति है। यहां लोक कल्याण ही धर्म है। क्या कोई धर्म के बिना रह सकता है। यहां तो मंगल कामना में भी कहा जाता है लोकासमस्तु सुखिनोभावन्तु। यह शब्द भारतीय संविधान के प्रस्तावना में आपातकाल के दौरान 1976 में डाला गया। अगर भारत सेकुलर /धर्मनिरपेक्ष है तो संसद में लिखा शब्द धर्मचक्र प्रवर्तनाय, धर्मों रक्षति रक्षितः, या सत्यमेव जयते का क्या होगा? भारत में सर्वधर्म समभाव के साथ भारतीय समाज युगों से जी रहा है। यह संविधान के कारण से नही है। व्यवस्था सेकुलर हो सकती है।
Conversion -धर्मांतरण के संदर्भ में इस शब्द का अधिक उपयोग होता देखा गया। भारत मे किसी के धर्म को बदलना संभव नही है। सनातन संस्कृति में जन्म से व्यक्ति हिन्दू होता है।
Religon भी इसी प्रकार का भ्रामक है। रिलीजन उपासना से जुड़ा हुआ है। मंदिर जाना, कीर्तन करना धतं नही उपासना है। उपासना हर व्यक्ति का निजी मामला है। religon और धर्म एक नही हैं। ईसाई धर्म मे धर्म गुरु का सभी कार्यकलापों में हाथ रहा है। पोप रिलिजन की व्याख्या करने का अधिकारी है। रिलीजन को शुरू करनेवाला कोई होता है, धर्म को सामाजिक मूल्य चलाते हैं। रिलीजन मजहब है। मजहब का चलानेवाला कोई होता है। धर्म शास्वत होता है।
धर्म शब्द को भी लोग सही परिभाषित नही कर पाते। सनातन शास्त्रों में कहा है-
धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः।
यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।
अर्थात्—‘जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को एकसूत्रता में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’
मैं को छोड़ो हम शब्द को पकड़ो। आचरण धर्म है। किसी भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, पीड़ित की सेवा करना धर्म है। समाज को अपनाकर उससे जुड़ना धर्म है। धर्म जोड़ता है। तोड़ता नही। आचार: प्रथमो धर्म:।
राष्ट्रवादी शब्द पश्चिम के नेशनलिज्म शब्द से आया है। उनका नेशन और हमारा राष्ट्र दोनों में अंतर है। पश्चिमी सोच में भूमि, जनसख्या और सत्ता नेशन है जबकि भारत में लोगों से राष्ट्र बना है।
उत्तरं यत समुद्रश्च हिमाद्रीश्चैव दक्षिणम
वर्षम तद भारतम नाम: भारती तत्र संतति:।।
इसमें भूमि भी है, लोग भी हैं संस्कृति भी है। जो व्यक्ति जिस राष्ट्र में रहता है वह वहां का राष्ट्रीय हुआ।
इसी प्रकार राष्ट्रीय शब्द का भी प्रयोग गलत होता है। राष्ट्रीय का अर्थ है राष्ट्र की। कोई राजनीतिक दल स्वयं को राष्ट्रीय कहता है, क्या जिसे राष्ट्रीय नही कहा जा रहा वह राष्ट्रीय नही है। जो व्यवस्थाएं देशभर में हों उनके लिए उपयुक्त शब्द अखिल भारतीय है न कि राष्ट्रीय।
माननीय सह सरसंघचालक जी ने कहा चातक पक्षी का ध्येय स्वाति नक्षत्र में बरसने वाली स्वाति बूंद को पीने की होती है। उसका लक्ष्य होता है। एक अध्यापक ने विद्यार्थियों को जीवन का लक्ष्य विषय पर निबंध लिखने को कहा। किसी ने लिखा मेरा लक्ष्य डॉक्टर बनना है, किसी ने इंजीनियर, किसी ने पायलट…. एक विद्यार्थी ले लिखा समाज परिवर्तन मेरे जीवन का लक्ष्य है। डॉक्टर, इंजीनियर…बनना रोजगार का साधन है साध्य नही। ध्येय साध्य होता है, साधन नही।
साधन अच्छा है तो आदमी गति से आगे बढ़ता है। नदी के पानी मे गति क्यों होता है क्योंकि उसे समुद्र से मिलना है। जहां ध्येय मजलूम है वहाँ गश्ती भी है। इसे समझने के लिए जीवन दृष्टि और दृष्टिकोण को समझना जरूरी है।
डॉक्टर मनमोहन वैद्य जी ने कहा भारत ईश्वर को समझने के लिए ईशावास्य उपनिषद पढ़ना चाहिए। उन्होंने इस उपनिषद का एक श्लोक सुनाया-
तत् एजति। तत् न एजति। तत् दूरे। तत् उ अन्तिके।
एतत् अस्य सर्वस्य अन्तः। तत् उ सर्वस्य अस्य वाह्यतः ॥
वह (ईश्वर) गति करता है और गति नहीं भी करता; वह दूर है और पास भी है; इस सबके भीतर है और इस सबके बाहर भी है। बल्कि पहला श्लोक यह बताता है कि ईश्वर कण कण में विद्यमान है।
अपने व्याख्यान के अंत मे उन्होंने प्रसून जोशी की लिखी एक कविता सुनाई-
उखड़े-उखड़े क्यों हो वृक्ष, सूख जाओगे।
जितनी गहरी जड़ें तुम्हारी, उतने ही तुम हरियाओगे।…