*मूषाओं के मकान – आश्चर्य का हेतु
दस साल पहले जब मैं ‘समरांगण सूत्रधार’ ग्रंथ पर काम कर रहा था तो उसमें भवन में मूषाओं के प्रयोग के संबंध में कई निर्देश थे और मैं ‘मक्षिका स्थाने मक्षिकाम्’ की तरह की मूल शब्द का ही प्रयोग करके एक बार तो आगे से आगे अर्थ करता चला गया। बाद में जो अर्थ होना चाहिए था, वह पुनर्स्थापित किया किंतु उदयपुर जिले के जावर में तो मूषाओ [Retorts] के प्रयोग को देखकर फिर कोई नया अर्थ सामने आ गया। जरूर भोजराज के समय, 10वीं सदी तक जावर जैसा प्रयोग लुप्त हो गया होगा।
जावर दुनिया में सबसे पहले यशद देने वाली खदान के लिए ख्यात रहा है। यशद या जिंक का प्रयोग होने से पहले इस धातु को जिन लोगों ने खोजा और वाष्पीकृत हाेने से पहले ही धातुरूप में प्राप्त करने की विधि को खोजा- वे भारतीय थे और मेवाड़ के जाये जन्मे थे। सामान्य घरों में रहने वाले और जिस किसी तरह गुजारा करने वाले। जावर की खदान सबसे पहले चांदी के लिए जानी गई और ये पहाड़ाें में होने से इनको ‘गिरिकूप’ के रूप में शास्त्र में जाना गया। पर्वतीय खानों में उत्खनन के लिए पहले ऊपर से ही खोदते-खोदते ही भीतर उतरा जाता था। शायद इसी कारण यह नाम हुआ हो। यहां ‘मंगरियो कूड़ो’ या डूंगरियो खाड़ कहा भी जाता है।
तो, करीब ढाई हजार साल पहले यहां धातुओं के लिए खुदाई ही नहीं शुरू हुई बल्कि अयस्कों को निकालकर वहीं पर प्रदावण का कार्य भी आरंभ हुआ। जरूर यह समय मौर्यपूर्व रहा होगा तभी तो चाणक्य ने पर्वतीय खदानों की पहचान करने की विधि लिखी है और आबू देखने पहुंचे मेगास्थनीज ने भी ऐसी जगहों को पहचान कर लिखा था।
यहां प्रदावण का कार्य इतने विशाल स्तर पर हुआ कि यदि कोई जावर देख ले तो आँखे पलक झपकना भूल जाए। हर कदम पर रोमांच लगता है। कदम-दर-कदम मूषाओं का भंडार और उनमें भरा हुआ अयस्क चूर्ण जो जब पिघला होगा तो धातु की बूंद बनकर टपका होगा। धातु तत्काल हथिया लिया गया मगर मूषाओं का क्या करते ? एक मूषा एक ही बार काम में आती है। इसी कारण बड़े पैमाने पर यहां मूषाओं का निर्माण भी हुआ और उनका प्रदावण कार्य में उपयोग भी। प्राचीन भारतीय प्रौद्योगिकी का जीवंत साक्ष्य है जावर, जहां कितनी तरह की मूषाएं बनीं, यह तो उनका स्वरूप देखकर ही बताया जा सकता है मगर ‘रस रत्न समुच्चय’ आदि ग्रंथों में एक दर्जन प्रकार की मूषाएं बनाने और औषधि तैयार करने के जिक्र मिलते हैं। इनके लिए मिट्टी, धातु, पशुरोम आदि जमा करने की अपनी न्यारी और निराली विधियां हैं मगर, रोचक बात ये कि अयस्क का चूर्ण भरकर उनका मुख कुछ इस तरह के छिद्रित ढक्कन से बंद किया जाता था कि तपकर द्रव सीधे आग में न गिरे अपितु संग्रहपात्र में जमा होता जाए।
प्रदावण के बाद बची, अनुपयोगी मूषाओं का क्या उपयोग होता ? तब यूज़ एंड थ्रो की बजाय, यूज़ आफ्टर यूज़ का मन बना और मूषाओं का उपयोग कामगारों ने अपने लिए आवास तैयार करने में किया। कार्यस्थल पर ही आवास बनाने के लिए मूषाओं से बेहतर कोई वस्तु नहीं हो सकती थी। जिस मिट्टी से मूषाओं को बनाया जा रहा था, उसी मिट्टी के लौंदों से मूषाओं की दीवारें खड़ीकर चौकोर और वर्गाकार घर बना दिए गए। ये घर भी कोई एक मंजिल वाले नहीं बल्कि दो-तीन मंजिल वाले रहे होंगे। है न रोचक भवन विधान।
ये बात भी रोचक है कि हवा के भर जाने के कारण वे समताप वाले भवन रहे होंगे। अंधड़ के चलने पर और बारिश के होने पर उन घरों की सुरक्षा का क्या होता होगा, मालूम नहीं। उनमे रहने का अनुभव कैसा रहा होगा, हममें से शायद ही किसी को ऐसे हवादार घर में रहने का अनुभव हो।
मगर, जावर की पहाडि़यां ऐसे मूषामय घरों की धनी रही हैं। आज केवल उनके अवशेष नजर आते हैं। कोई देखना चाहे तो जावर उनको बुला रहा है।
अनुज श्रीनटवर चौहान को धन्यवाद कि वह इस नवरात्र में मुझे जावर ले गया और मैं पूरे दिन इन मूषाओं के स्वरूप और मूषाओं के मकानों को देख देखकर हक्का-बक्का रहा। हम सबके लिए अनेक आश्चर्य हो सकते हैं, मगर मेरे लिए जावर भी एक बड़ा आश्चर्य है जहां आंखें जो देखती है, जबान उसका जवाब नही दे सकती। हां, कुछ वर्णन जरूर मैंने अपनी ‘मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास’ में किया है।