प्रसन्नता का अवसर- एक प्रेरक कहानी
एक मेंढक बडी उग्र तपस्या करने लगा।
क्षुद्र प्राणी की इतनी प्रबल निष्ठा देखकर शंकर जी दयार्द्र हो उठे, उनने उससे पूछा-वत्स तुझे कुछ कष्ट तो नहीं?’’
मेंढक ने कहा-भगवन् पड़ोस में एक दुष्ट सर्प रहता है जो मुझे भय देता रहता है।
उससे ध्यान में विघ्न पड़ता है।
कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे मेरा भय दूर हो और निश्चिंत मन से तपस्या कर सकूँ।’’
शंकर जी ने मेंढक को साँप बना दिया।
अब उसे कुछ भय न रहा, पर थोड़े दिन बाद एक न्यौला उधर आने लगो।
मेंढक को फिर भय उत्पन्न हो गया।
मेंढक ने भगवान शिव का ध्यान किया तो वे प्रकट हो गए।
कारण पूछने पर उसने नई व्यथा सुनाई।
भगवान ने उसे न्यौला बना दिया।
न्यौला बना मेंढक सुखपूर्वक तप करने लगा।
अब एक बनबिलाव उधर आने लगा और न्यौले की घात सोचने लगा।
मेंढक ने यह व्यथा कही तो भगवान ने उसे बनबिलाव बना दिया।
कुछ दिन बार सिंह की आँखें बनबिलाव पर लगीं तो शिवजी की कृपा से उसे सिंह का शरीर प्राप्त हो गया।
इतने पर भी चैन न मिला, शिकारी अपना जाल और धनुष संभाले सिंह की घात में फिरने लगे।
मेंढक ने आर्त भाव से शिवजी को पुकारा, जब वे पधारे तो उसने कहा-प्रभो मुझे मेंढक ही बना दीजिए।’’
सिंह का शरीर छोड़कर पुनः उसी छोटे शरीर में लौटने की इच्छा करने वाले मेंढक से आश्चर्य पूर्वक भगवान पशुपति ने पूछा-भला ऐसा क्यों?’’
मेंढक ने कहा-
प्रभो भय कभी दूर नहीं होता और न बाधाएँ-कभी समाप्त होती हैं।
जीव जिस स्थिति में भी है उसी में कठिनाइयों से साहसपूर्वक लड़ते हुए आगे बढ़ सकता है।
ऐसा मैंने समझा है।
यह बात सत्य हो तो मुझे अपने असली शरीर में रहकर ही प्रसन्न रहने का अवसर दीजिए।’’ उसकी मान्यता ठीक थी।
शंकर जी बहुत संतुष्ट हुए और सिंह को मेंढक रहकर ही तपस्या पूर्ण करने की आज्ञा दे दी।