भागीरथ दिखते कैसे होंगे?

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आनन्द कुमार
महाभारत के वन-पर्व में भगीरथ की कहानी तीर्थ-यात्रा पर्व में आती है। इक्ष्वाकु वंश के राजा के परिवार में जन्मे भगीरथ को उनके गुरु त्रिथल से जब पता चला कि कपिल मुनि के शाप के कारण उनके वंशजों को मुक्ति नहीं मिल पाई है तो उन्होंने मुक्ति का उपाय पूछा। उपाय एक ही था कि मोक्षदायिनी गंगा अगर पृथ्वी पर आयें तो उन पूर्वजों को मुक्ति मिल पाती। जब तप से भगीरथ ने जब गंगा को अवतरण के लिए तैयार कर भी लिया तो उनके वेग को संभालने के लिए कोई चाहिए था।

अब इस काम के लिए भगीरथ ने भगवान शिव को प्रसन्न किया। ऐसे काफी प्रयासों के बाद गंगा धरती पर आयीं। ये काम इतना मुश्किल था कि आज भी इस प्रयास के नाम पर किसी भी मुश्किल काम को “भगीरथी प्रयास” कहते हैं। देवप्रयाग में अलकनंदा नदी से मिलने से पहले तक गंगा भी भागीरथी नाम से ही जानी जाती हैं। ये कहानी अक्सर हिन्दुओं के “मिथकों” में गिनी जाती है और लोग सोचते हैं कि ये बस किस्से-कहानी की बात है। ऐसा सचमुच नहीं हुआ होगा।

अब आज की तारिख के गया जिले में चलते हैं। बिहार का गया जिला पहले ही “माउंटेन मैन” कहलाने वाले दशरथ मांझी के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने पहाड़ का सीना खोदकर,अकेले ही एक सड़क बना डाली थी। इसी जिले के कोठीलावा गाँव में लौंगी भुइयां रहते हैं। अब वो सत्तर वर्ष के हैं। जैसा कि बिहार के अधिकांश इलाकों में होता है, इनके क्षेत्र से भी सभी लोग पलायन करके दिल्ली-पंजाब मजदूरी करने चले जाते थे। इसकी एक बड़ी वजह थी पानी की कमी, जिसकी वजह से कृषि संभव नहीं थी।

एक दिन बकरी चराते-चराते लौंगी भुइयां जी को लगा कि अगर गाँव में पानी आ जाए तो लोगों को पलायन नहीं करना पड़ेगा। गया जिला बिहार के उन जिलों में आता है जहाँ पानी कम होता है। उत्तरी बिहार के बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों की तुलना में यहाँ की स्थिति ठीक उल्टी है। एक ही तरीका था कि पहाड़ों पर से बारिश में बहकर बेकार हो जाने वाले पानी को सहेजकर किसी तालाब में इकठ्ठा किया जाए। अब समस्या थी कि पहाड़ों पर से पानी कई किलोमीटर दूर, गाँव तक आएगा कैसे?

लौंगी भुइयां जी ने उठाई कुदाल और नहर बनाकर पानी को गाँव तक लाने में जुट गए। उनकी पत्नी को जब पता चला कि बिना कोई पैसे मिले ही वो रोज फावड़ा लिए नहर खोदने में जुटे होते हैं तो उन्होंने रोकना चाहा। बेटे और बहु ही नहीं गाँव के लोगों को भी लगा कि लौंगी भुइयां जी पागल हो गए हैं! भला कोई अकेला आदमी कुदाल से कई किलोमीटर की नहर खोदकर पानी अपने गाँव ला सकता है? लेकिन लौंगी भुइयां जी रुके नहीं। वो जुटे रहे और पहले साल, फिर पांच साल और फिर दस साल बीतते गए।

तीस साल की मेहनत से लौंगी भुइयां जी ने तीन किलोमीटर की नहर खोद डाली। पहाड़ों से पानी को इकठ्ठा करके गाँव की ओर मोड़ लिया। अब वो पानी गाँव के तालाब में जमा होता है। अचानक लोगों को लौंगी भुइयां जी के श्रम का नतीजा मिलने लगा। अब तालाब में जमा पानी से से इलाके के 3000 लोगों को फायदा होता है। अगर देखा जाए तो ऐसे परंपरागत तरीकों पर, तालाबों पर, अनुपम मिश्रा जी ने “आज भी खरे हैं तालाब” लिखी थी। ऐसे ही “जल थल मल” भी पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों पर लिखी गयी है।

बिहार सरकार भी “जल जीवन हरियाली” नाम से तालाबों-कुँए और परंपरागत जल स्रोतों को बचाने के लिए एक योजना लेकर आई है। सवाल ये है कि जब तक हम अपने असली नायकों को पहचान नहीं देते, तबतक किताबों और सरकारी प्रयासों का कितना फायदा होगा? जमीनी स्तर पर बिना किसी मैग्सेसे अवार्ड जैसे पुरस्कारों की कामना के काम करने वालों को सरकारों को भी पहचानना होगा। ऐसे प्रयासों को पुरस्कृत किया जाए तो ये और ग्रामीणों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनेंगे।

बाकी जब टीवी सीरियल में दर्शाते हैं, या हम अपनी कल्पना में सोचते हैं तो भगीरथ धोती पहने एक युवा से कल्पना में आते हैं जो आगे-आगे दौड़े आ रहे हों और पीछे तीव्र वेग से शोर मचाती गंगा आ रही हो। अब दोबारा सोचते हैं तो लगता है वर्षों तक भूखे-प्यासे तप करने में भगीरथ बूढ़े तो हुए ही होंगे?भागीरथी को लाते हुए वो स्वस्थ-सुन्दर युवा नहीं दिखते होंगे, वो ऐसे ही वृद्ध रहे होंगे!
✍🏻आनन्द कुमार

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