अंशु सारडा’अन्वि।
शाम की चाय बनाई, दूध कम, पानी ज्यादा, चायपत्ती कम, चीनी ज्यादा, चाय मसाला कम, उबाल ज्यादा, छानकर पी, बेस्वाद, बकवास, बोरिंग चाय। ऐसी ही होने लग रही है फिर एक बार हमारी जिंदगी। जिंदगी फिर से अजीब सी कशमकश के दोराहे पर आ खड़ी हुई है। जिधर देखो उधर खौफजदा चेहरे, ज्यादा परेशान करने वाली खबरें, टी.वी. पर आरोपों -प्रत्यारोप की राजनीति, रोते- बिलखते, चिल्लाते परिवारजन, कहीं प्राणदायिनी ऑक्सीजन के लिए जारी जंग, तो कहीं अस्पताल, बैड्ज, एंबूलेंस, प्लाज्मा के लिए हाहाकार। कोविड की दूसरी खतरनाक लहर चारों तरफ अपना कहर बरपा रही है। कहीं पैसा है तो जिंदगी है तो कहीं पैसा होकर भी जिंदगी नहीं। कहीं पैसे के अभाव में सांस खोती जिंदगी तो कहीं संसाधनों के अभाव में दम तोड़ती जिंदगी। आपदा को अवसर में बदलने के मंत्र का मूल भाव ही गायब हो गया है पर इसे भुनाया खूब जा रहा है। ऐसे अवसरों की तलाश वाले कालाबाजारियों और मुनाफाखोरों के दिन एक बार फिर हरे हो गए हैं। कहीं सेहत के नाम पर कीमत वसूल की जा रही है तो कहीं पर कीमत की दम पर सेहत मिल रही है।
आत्मीय जनों को खोने की तो कहीं उनकी बीमारी की खबरें विचलित कर दे रही हैं। अब तो किसी की मौत की खबर पर शोक व्यक्त करना भी हमारी संवेदना का हिस्सा नहीं रहा बल्कि एक खानापूर्ति करके आगे बढ़ने की क्रिया बन गया है। असल में जिंदगी हमें इतने डर वाले वातावरण में ले आई है कि डर के बारे में बात करना ही सुखकारी लगने लगा है, डर में जीना ही खुशी देने लगा है, डर में सांस लेना ही जैसे ऑक्सीजन का काम कर रहा है। कोई सकारात्मक बात हमें न तो सुनाई दे रही है, न ही दिखाई दे रही है न हमें अच्छी नहीं लग रही है। इस समय डर ही हमारी जिंदगी को ऑपरेट कर रहा है। स्कूलों की घंटी बजने से पहले ही वापस जड़ हो गई है। अधिकांशतः बोर्ड की परीक्षाएं बगैर कराए ही खत्म कर दिए जाने से बहुत से विद्यार्थी और उनके माता-पिता एक तनाव और आक्रोश के माहौल में सांस ले रहें हैं। बहुत से लड़के साफा बांध दूल्हा बनने को तैयार हैं और लड़कियां मेहंदी हाथों में लगाकर दुल्हन बनने को तैयार हैं पर इससे पहले कि उनका सपना साकार हो, वे जिंदगी की नई शुरुआत करें, कोरोना ने एक बार फिर बड़ा भारी -भरकम पर्दा डाल दिया है उनके अरमानों पर। दोनों ही पक्षों को इसमें एक बड़ा आर्थिक नुकसान भी भुगतना पड़ रहा है क्योंकि इवैंट आदि की प्रि- बुकिंग में उनको वापस कोई रकम नहीं मिलती और बैंड, बाजा, बारात के साथ शादी करने की उनकी तमाम ख्वाहिशें धरी की धरी रह जा रहीं हैं। समय की नब्ज को पकड़कर चलने वाला ही बुद्धिमान होता है। ऐसे समय में उचित रास्ता निकाल कर काम कर लेने वाला ही जीत में रहेगा। दरअसल बीच में कुछ ऐसा बदलाव का समय आया कि हमें लगा कि शायद हम जंग जीत जा रहे हैं और सब ठीक-ठाक हो रहा है पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हम एक आत्म हंता समाज का हिस्सा बन चुके हैं, सच से पीछे को भागता समाज, वर्तमान परिस्थिति से नजर चुराता समाज।समय ही कुछ ऐसा हो चला है कि इस समय हम परेशानी से जूझ रहे किसी भी व्यक्ति को पॉजिटिविटी का ज्ञान देंगे तो उसे समझ में ही नहीं आएगा। फिर भी हौंसला रखना, मजबूत इच्छाशक्ति रखना और डर को अपने ऊपर हावी न देना जैसे प्रयास तो हम खुद ही कर सकते हैं। अपनी मानसिक ऊर्जा को संभाल कर रखना खुद हमारा व्यक्तिगत उत्तरदायित्व है। एक पुरानी बात याद हो आई, जब बंगाल में मार्च, सन् 1899 में प्लेग का रोग एक महामारी की तरह फैला था, स्वामी विवेकानंद ने भय से मुक्त रहने और आत्मपुरुषार्थ, आत्म प्रेरणा और आत्म शक्ति के संचयन की बात की। क्या आज हम दोबारा ऐसे प्रेरक व्याख्यान की जरूरत नहीं समझ रहे हैं?
संक्रमण की दूसरी लहर से उपजे भयावह हालात फिर अगर दोबारा बने हैं तो यह हम सबकी लापरवाही का नतीजा है चाहे वह राजनेता हों, नौकरशाही हो, प्रबुद्ध वर्ग हो, स्वास्थ्य प्रकल्प हो या हम और आप जैसी आम जनता। इस समय फिर से हम एक साल पहले जैसे हालातों का सामना ही नहीं कर रहें हैं बल्कि इस बार यह सारी मशीनरी, सारा सिस्टम एक तरह से अविश्वास के कटघरे में खड़ा है। सब कुछ बेपर्दा सा, जिसमें साफ -साफ कोरोना युग की प्रदर्शनी चालू है। हम सब की लापरवाही के कारण यह क्षुद्र विषाणु इतना शक्तिशाली हो चुका है कि वह माउंट एवरेस्ट के बेस कैंप में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है नॉर्वे के पर्वतारोही के माध्यम से। आपको पता है क्या कि हम अपनी खिड़कियों से आजकल झांकते ही तब है जब बाहर कोई शोर सुनते हैं या यूं कहें कि आजकल हम खिड़कियां खोलते ही नहीं है, शायद बाहर की दुनिया के प्रति बड़े ही असहज हो चले हैं हम। तो फिर हम किसी दृश्य को कैसे देख रहे हैं, क्या देख रहे हैं यह अब महत्वपूर्ण हमारे लिए रहा ही कहां, क्योंकि हम आत्म केंद्रित होते जा रहे हैं, अति और गति के मारे है़ हम। अपनी व्यथा की तो हम बात करते हैं पर व्यवस्था की नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि हम सिर्फ अपनी शिकायतों को ही दर्ज न कराएं बल्कि व्यवस्था में भी सहायक बनें। जैसे शरीर की डिटॉक्सिंग के लिए साप्ताहिक व्रत आदि किए जाते हैं, डिजिटल डिटॉक्सिंग इस समय हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए बहुत जरूरी है। दु:ख होता है यह देखकर कि मेडिकल ऑक्सीजन का अभाव इतना अधिक दुष्प्रभाव दिखा रहा है कि उच्च न्यायालय को ऐसे मामले को संज्ञान लेते हुए दखल देना पड़ रहा है।
एक सकारात्मक बात जो मैं देख पा रही हूं कि टी.वी. और सोशल मीडिया पर इस समय की भयावहता की रिपोर्टिंग, श्मशान में जलती चिताओं आदि को देख कर डर लगता है तो वहीं वे ही टी.वी. चैनल लगातार इस विषय पर संबंधित जानकारी के लिए विभिन्न डॉक्टरों के साथ बराबर चर्चा आदि प्रसारित कर रहें हैं तो कहीं सोशल मीडिया पर वे बड़े नाम जिनके काफी संख्या में फॉलोअर्स हैं जितना संभव हो रहा है उतना ऑक्सीजन की आपूर्ति, प्लाज्मा डोनर्स, हॉस्पिटल, मरीजों आदि से संबंधित जानकारी भी अपने पेज पर शेयर कर रहें हैं और उसके लिए आगे हाथ भी बढ़ा रहे हैं। मदद का यह काम अगर अधिक नहीं भी हो पा रहा है तो भी कम से कम मरती हुई एक मछली को जीवनदान देने जैसा तो जरूर ही है। यें वों छोटी-छोटी घटनाएं हैं जो हमारे अंदर जागरूकता लाती हैं, बदलाव भी लाती हैं। बस अब हमें और अधिक नुकसान नहीं उठाना है। जब कुछ समझ नहीं आ रहा हो और चीजें हमारे नियंत्रण के बाहर जा रही हों तब चलते हुए कदमों को वहीं रोक लेना ठीक है उससे अगर फायदा नहीं भी हुआ तो भी कम से कम और अधिक नुकसान तो होने से बच जाएंगे। शेयर बाजार में इसके लिए एक शब्द होता है ‘स्टॉप लॉस’, जो इस समय हमारा आदर्श शब्द होना चाहिए कि अब हम और अधिक नुकसान बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं। और यह सीमा रेखा हमें ही तय करनी है अपनी जिंदगी के लिए।
अंत में हिंदी ग़ज़ल के एक और सितारे शायर जहीर कुरैशी को श्रद्धांजलि उनकी ही इन पंक्तियों के साथ-
” सबकी आंखों में नीर छोड़ गए,
जाने वाले शरीर छोड़ गए।
राह भी याद रख नहीं पाई,
क्या कहां राहगीर छोड़ गए।
लग रहे हैं सही निशाने पर,
वह जो व्यंग्यों के तीर छोड़ गए।
हीर का शील भंग होते ही,
रांझे अस्मत पे चीर छोड़ गए।
उस पे कब्जा है काले नागों का,
दान जो दानवीर छोड़ गए।
हम विरासत न रख सके कायम,
जो विरासत कबीर छोड़ गए।”
* अंशु सारडा’अन्वि’
गुवाहाटी, असम