पूनम शर्मा
दुनिया एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ भ्रम की गुंजाइश लगातार घट रही है। वर्षों तक “राजनीतिक शिष्टाचार” के आवरण में ढकी रही सच्चाइयाँ अब सतह पर आ रही हैं। आतंकवाद को केवल “सुरक्षा समस्या” कहकर टाल देना अब संभव नहीं रहा; यह एक वैचारिक और नेटवर्क-आधारित चुनौती है, जो सीमाओं, कानूनों और नैतिकताओं का फायदा उठाकर फलती-फूलती रही है। भारत इस सच्चाई को लंबे समय से कहता आया है—और आज वही बात अंतरराष्ट्रीय मंचों पर स्वीकार की जा रही है।
समस्या यह नहीं कि दुनिया ने देर से समझा; समस्या यह है कि दोहरे मानदंडों ने कितनी जानें लीं। जब भारत सीमा-पार आतंकवाद की बात करता था, तब उसे “क्षेत्रीय तनाव” कहकर अनदेखा किया गया। जब हम फंडिंग, रैडिकलाइज़ेशन और प्रोपेगैंडा की बात करते थे, तब “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” की आड़ ली जाती थी। आज वही देश स्वीकार कर रहे हैं कि आतंकवाद किसी एक इलाके तक सीमित नहीं—यह एक वैश्विक इकोसिस्टम है।
भारत की नीति में हाल के वर्षों में एक स्पष्ट बदलाव दिखता है—अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर। यह बदलाव केवल सैन्य या कूटनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक भी है। भारत अब यह कहने से नहीं हिचकता कि आतंक और उसके समर्थक नेटवर्क के बीच कोई “ग्रे एरिया” नहीं होता। जो हिंसा को वैध ठहराता है, जो फंडिंग करता है, जो डिजिटल स्पेस में नफरत फैलाता है—वह समस्या का हिस्सा है।
यही वह बिंदु है जहाँ अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की परीक्षा होती है। संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर प्रस्ताव पारित करना आसान है, लेकिन कार्रवाई की निरंतरता कठिन। वर्षों तक कुछ देशों को “रणनीतिक कारणों” से छूट मिलती रही। नतीजा यह हुआ कि आतंक के कारखाने फलते-फूलते रहे, और निर्दोष नागरिक इसकी कीमत चुकाते रहे। अब जब वही आग कई जगहों पर पहुँची है, तब जागरूकता बढ़ी है—पर सवाल है, क्या यह पर्याप्त है?
मीडिया की भूमिका भी आत्ममंथन माँगती है। लंबे समय तक “शब्दों की सावधानी” के नाम पर तथ्यों को धुंधला किया गया। आतंकवादियों को “उग्रवादी”, “विद्रोही” या “लोन-वुल्फ” कहकर संदर्भ से काट दिया गया। इससे न केवल सच्चाई कमजोर हुई, बल्कि पीड़ितों की आवाज़ भी। जिम्मेदार पत्रकारिता का अर्थ यह नहीं कि नफरत फैलाई जाए; इसका अर्थ यह है कि हिंसा की वैचारिक जड़ों को ईमानदारी से उजागर किया जाए।
यह भी उतना ही जरूरी है कि इस बहस में आम नागरिकों और संवैधानिक मूल्यों की सुरक्षा केंद्र में रहे। आतंकवाद किसी धर्म या समुदाय का पर्याय नहीं हो सकता। लोकतंत्र की ताकत इसी में है कि वह अपराध और अपराधी के बीच फर्क करता है—और कानून के दायरे में रहकर कठोरता दिखाता है। भारत की चुनौती दोहरी है: एक ओर आतंक के नेटवर्क से निपटना, दूसरी ओर समाज के भीतर विश्वास और सहअस्तित्व को मजबूत रखना।
कूटनीति के स्तर पर भारत ने लगातार यह संदेश दिया है कि आतंकवाद पर “व्यापार-बंद” दृष्टिकोण नहीं चलेगा। आर्थिक, रणनीतिक या राजनीतिक हितों के नाम पर आंखें मूंदना अंततः सभी के लिए महंगा पड़ता है। आज जब कई देश अपनी आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से जूझ रहे हैं, तब भारत का अनुभव—इंटेलिजेंस, फाइनेंस-ट्रैकिंग, डिजिटल मॉनिटरिंग और सीमा सुरक्षा—एक महत्वपूर्ण संदर्भ बनता है।
भविष्य की राह स्पष्ट है। आतंकवाद से लड़ाई केवल हथियारों से नहीं जीती जा सकती; यह विचारों, कानून और संस्थागत ईमानदारी की लड़ाई है। सोशल मीडिया पर रैडिकलाइज़ेशन, एनजीओ और शेल-कंपनियों के जरिए फंडिंग, और शरणार्थी-नीति की आड़ में नेटवर्क-निर्माण—इन सब पर समन्वित वैश्विक कार्रवाई जरूरी है। चयनात्मक आक्रोश से काम नहीं चलेगा।
अंततः, यह किसी “धर्मयुद्ध” का प्रश्न नहीं, बल्कि सभ्यता बनाम बर्बरता का सवाल है। भारत की स्पष्टता—कि आतंक और उसके हर रूप के खिलाफ शून्य सहिष्णुता—आज पहले से अधिक प्रासंगिक है। दुनिया यदि सचमुच सुरक्षित भविष्य चाहती है, तो उसे शब्दों से आगे बढ़कर समान मानकों और वास्तविक कार्रवाई की ओर जाना होगा। यही समय की मांग है—और यही इतिहास की कसौटी भी।