जब सिनेमा झूठ को तोड़ता है: राष्ट्र, नैरेटिव और आतंकवाद की सच्ची कहानी

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

पूनम शर्मा
भारतीय समाज में सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं रहा। वह स्मृति बनता है, सोच गढ़ता है और कई बार इतिहास को दोबारा जनता के सामने रख देता है। दशकों तक कुछ खास नैरेटिव्स — विशेषकर आतंकवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और “सेक्युलर बनाम राष्ट्र”  — एक सीमित वैचारिक दायरे में कैद रहे। इसी पृष्ठभूमि में हालिया सुपरहिट फिल्म धुरंधर  जिसने हज़ार करोड़ से अधिक का आंकड़ा छुआ, एक सांस्कृतिक मोड़ बनकर सामने आती है।

यह सफलता केवल बॉक्स ऑफिस की नहीं है, बल्कि उस मानसिक दीवार के टूटने की है, जिसे वर्षों तक “सही सोच” के नाम पर खड़ा रखा गया।

बॉलीवुड, शिक्षा और वैचारिक नियंत्रण

एक समय था जब गीतों, फिल्मों और विश्वविद्यालयों में एक ही प्रकार का बौद्धिक प्रभुत्व दिखाई देता था। राष्ट्रवाद को संदेह की दृष्टि से देखा जाता था और आतंकवाद को “परिस्थितिजन्य प्रतिक्रिया” बताने की कोशिश होती थी।इस फिल्म की सबसे बड़ी जीत यही है कि उसने उस एकांगी नैरेटिव को चुनौती दी। आज अगर यह ट्रेंड स्थायी बनता है, तो आगे ऐसी कई फिल्में आएँगी जो “झूठ को सच बनाकर” परोसने के बजाय तथ्यों और जमीनी हकीकत पर आधारित होंगी।

2000 के बाद का दौर: आतंकवाद का बदलता मॉडल

2000 के बाद दक्षिण एशिया की सुरक्षा संरचना पूरी तरह बदलती है। 9/11 के बाद अमेरिका का आतंक के खिलाफ युद्ध,पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और फिर “डिनाएबल टेररिज़्म” यानी ऐसा आतंक, जिसे राज्य प्रायोजित होते हुए भी नकारा जा सके।

इसी दौर में अंडरवर्ल्ड, आतंकी संगठन और कट्टरपंथी नेटवर्क का गठजोड़ मजबूत होता है। फंडिंग, हथियार, फर्जी दस्तावेज़ और ट्रेनिंग — सब कुछ एक संगठित प्रणाली के तहत चलता है। भारतीय मुस्लिम समाज और खतरनाक राजनीति का सबसे चिंताजनक पहलू यह रहा कि भारतीय मुस्लिम समाज जानबूझकर शुरू से इस कड़ी का हिस्सा  था  । एक तरफ पाकिस्तान प्रायोजित कट्टरपंथ दूसरी तरफ भारत के भीतर “हिंदू आतंकवाद” थोपने जैसे राजनीतिक प्रयोग और इस रणनीति का परिणाम यह हुआ कि असली दोषियों से ध्यान हट गया और समाज के भीतर अविश्वास गहराता चला गया।

समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव और नैरेटिव की राजनीति

समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट और मालेगांव जैसे मामलों में शुरुआती जाँच  जिस दिशा में मोड़ी गई, वह आज भी सवाल खड़े करती है। बाद में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और तथ्यों ने जिस सच्चाई की पुष्टि की, वह पहले से तय राजनीतिक कहानी से मेल नहीं खाती थी। यह फिल्म इसलिए उन लोगों को  असहज करती है क्योंकि वह पूछती है: क्या आतंकवाद की जड़ें पाकिस्तान से अधिक भारत की भी राजनीतिक सुविधा में  तय की गई थी ?

मुंबई पुलिस और सिस्टम की निर्णायक भूमिका

एक मोड़ ऐसा भी आया जब जमीनी स्तर के पुलिसकर्मियों की सतर्कता ने अंतरराष्ट्रीय साजिशों की “पॉज़िबल डिनायबिलिटी” तोड़ दी। जब आतंकवाद को नकारा नहीं जा सका, तब वैश्विक नैरेटिव बदला और पाकिस्तान को पीछे हटना पड़ा। ताज होटल पर हमला इस बात का सबूत था ।

यह हिस्सा याद दिलाता है कि संस्थान तभी मजबूत होते हैं, जब ईमानदार लोग सिस्टम के भीतर टिके रहते हैं।

सिनेमा क्यों खतरनाक लगता है?

यह फिल्म इसलिए निशाने पर आई क्योंकि यह

पीड़ितों को आवाज़ देती है

राजनीतिक सुविधाजनक झूठ को चुनौती देती है

और दर्शक को खुद सोचने पर मजबूर करती है

यही कारण है कि इसके खिलाफ आलोचना भी वैचारिक कम, घबराहट ज़्यादा दिखी। और खान बंधुओं को अब लगता है कि यदि इस प्रकार की फिल्में चल निकलेंगी तो उनके पाकिस्तान प्रेम और अजेंडों  क्या होगा और उन्हें कौन  पूछेगा ?

निष्कर्ष: यह सिर्फ एक फिल्म नहीं

यह फिल्म न तो किसी धर्म के खिलाफ है, न किसी समुदाय के। यह आतंकवाद के उस मॉडल के खिलाफ है, जिसमें झूठ, राजनीति और भय को हथियार बनाया गया। अगर भारतीय सिनेमा इस दिशा में आगे बढ़ता है, तो यह केवल बॉक्स ऑफिस नहीं, बल्कि राष्ट्रीय बौद्धिक स्वतंत्रता की जीत होगी।

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.