नोटों पर गाँधी, राष्ट्र की एक असहज स्मृति और सवाल

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पूनम शर्मा
अफ़वाह से असंतोष तक

हाल के दिनों में यह चर्चा तेज़ हुई है कि भारतीय मुद्रा से महात्मा गाँधी की तस्वीर हटाई जा सकती है। यह सूचना कभी चॉकलेट रैपर, कभी सरकारी योजनाओं के नामों, तो कभी सार्वजनिक प्रतीकों में बदलाव की अफ़वाहों के साथ सामने आती है। पर असली मुद्दा अफ़वाह नहीं, बल्कि वह गहरी असहजता है जो गाँधी की सार्वजनिक छवि, उ राजनीतिक भूमिका और राष्ट्र की आत्म-छवि के बीच बनती दरार से उपजती है। यह असंतोष प्रतीकों से आगे जाकर इतिहास, पहचान और संवैधानिक स्मृति पर सवाल उठाता है।

सविनय अवज्ञा से बंबई तक: स्मृति की उलझन

गाँधी का नाम आते ही सविनय अवज्ञा आंदोलन और ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने की स्मृतियाँ उभरती हैं।क्या उन्होंने अकेले ही संभव किया था ? उत्तर है नहीं , लेकिन उसी औपनिवेशिक सत्ता द्वारा बंबई में गाँधी का सार्वजनिक प्रस्तुतिकरण—यह विरोधाभास आज भी सवाल खड़े करता है। क्या स्वतंत्रता की कहानी उतनी सरल है, जितनी प्रतीकों में दिखाई जाती है? यह प्रश्न गाँधी के पक्षपाती योगदान को नकारने के लिए नहीं, बल्कि उस जटिल राजनीतिक परिदृश्य को समझने के लिए है जिसमें निर्णयों के दूरगामी परिणाम पड़े।

मुद्रा पर चेहरा: श्रद्धा या बोझ?

भारतीय नोटों पर दशकों से गाँधी की तस्वीर है—₹1 से लेकर बड़े मूल्यवर्ग तक। कुछ के लिए यह नैतिक आदर्श का प्रतीक हो सकती है , पर रोज़मर्रा के लेन-देन में थोपे गए एक चेहरे की थकाऊ पुनरावृत्ति। जब हर सौदे में वही चेहरा दिखे, तो श्रद्धा कब बोझ बन जाती है—यही असहज सवाल उभरता है। आलोचना केवल तस्वीर की बनावट तक सीमित नहीं; वह उस अर्थ पर जाती है, जो मुद्रा जैसे सार्वभौमिक माध्यम से समाज पर आरोपित होता प्रतीत होता है।

राष्ट्र, पहचान और विभाजन का प्रश्न

“मुसलमानों को देश मिला, पर हिंदुओं को हिंदुस्तान मिला या नहीं?” यह सवाल सीधे विभाजन की राजनीति से जुड़ता है। गाँधी की राजनीतिक भूमिका और उनके समझौतावादी दृष्टिकोण के कारण भारत एक हिंदू राष्ट्र के रूप में नहीं उभर सका, जबकि पाकिस्तान को इस्लामी पहचान के आधार पर राष्ट्र मिला। इस दृष्टि से देखा जाए तो स्वतंत्रता के क्षण में ही पहचान का असंतुलन पैदा हुआ—जहाँ एक पक्ष को धार्मिक आधार पर राष्ट्र मिला, वहीं भारत से अपेक्षा की गई कि वह बहुधर्मी होते हुए भी किसी बहुसंख्यक पहचान को स्वीकार न करे। यही असंतोष आज प्रतीकों पर आकर फूटता है।

संवैधानिक परिप्रेक्ष्य: बहुलता बनाम आकांक्षा

भारतीय संविधान किसी एक व्यक्ति या एक धार्मिक पहचान की सर्वोच्चता की बात नहीं करता। वह समानता, बहुलता और नागरिकता के साझा बंधन पर टिका है। लेकिन यह भी सच है कि संविधान उन ऐतिहासिक घावों को पूरी तरह भर नहीं सका, जो विभाजन ने छोड़े। सार्वजनिक प्रतीक—चाहे मुद्रा हो या सरकारी नामकरण—राज्य की स्मृति गढ़ते हैं। सवाल यह नहीं कि गाँधी रहें या न रहें, बल्कि यह है कि क्या हमारी सार्वजनिक स्मृति उन आकांक्षाओं और पीड़ाओं को भी जगह देती है, जो बहुसंख्यक समाज के भीतर लंबे समय से सुलग रही हैं।

अफ़वाहों का समाजशास्त्र

“नोटों से तस्वीर हटेगी”—ऐसी खबरें यूँ ही नहीं फैलतीं। वे उस सामूहिक मनोदशा की अभिव्यक्ति हैं, जिसमें लोग महसूस करते हैं कि राष्ट्र की कहानी एक चेहरे और एक नैरेटिव में सिमट गई है। अफ़वाहें तथ्य से ज़्यादा भावना पर चलती हैं, और भावना यह है कि ऐतिहासिक निर्णयों की जवाबदेही आज तय करने का समय आ गया है ।

प्रतीक बदलें या संवाद बढ़ाएँ?

मुद्रा से किसी तस्वीर का हटना-लगना प्रशासनिक निर्णय हो सकता है, लेकिन उससे बड़ा प्रश्न सार्वजनिक संवाद का है। गाँधी पर बहस उस इतिहास को ईमानदारी से देखने के लिए भी होनी चाहिए जिसमें उनके निर्णयों की हानियाँ शामिल हैं। यदि प्रतीक संवाद को आमंत्रित करें और बहुल स्मृतियों को जगह दें, तभी वे टिकाऊ बनते हैं—वरना वे असहज सवालों का बोझ बनकर रह जाते हैं।

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