पूनम शर्मा
क्या भारत की सरकार 19 दिसंबर को गिर गई ? क्या मोदी सरकार बदल गई ? क्या कोई मराठी प्रधान मंत्री बन गया ? ये जो भी सवाल हैं इन सवालों के विषयों पर आज से कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर किस प्रकार के शोर से भारी गंदगी का माहौल था । पत्रकारिता का स्तर कितना नीचे जा चुका है यह हम सभी ने देखा । नीचे दिए कुछ यूट्यूब चैनल एवं ऐसे कई सौ सोशल मीडिया लिंक है जिन्होंने मात्र सस्ती लोकप्रियता क्लिक के लिए अपने देश के सम्मान को परोसा ।
जेफ्री एपस्टीन से जुड़े दस्तावेज़ों के सार्वजनिक होने के बाद दुनिया भर में एक बार फिर हलचल मच गई। यह स्वाभाविक भी था। एक ऐसा व्यक्ति, जो नाबालिगों के यौन शोषण जैसे गंभीर अपराधों में दोषी ठहराया जा चुका हो, और जिसके संपर्कों में वैश्विक सत्ता, राजनीति और पूँजी के बड़े नाम रहे हों — उससे जुड़ी हर जानकारी लोगों की उत्सुकता बढ़ाती है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है, जब उत्सुकता को सनसनी में बदल दिया जाता है , और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है।
भारत में सोशल मीडिया और कुछ डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने एपस्टीन फाइल्स को जाँच का विषय नहीं, बल्कि तमाशा बना दिया।
दस्तावेज़ बनाम दुष्प्रचार
एपस्टीन फाइल्स में जो सामग्री सामने आई है, उसमें उड़ान लॉग, ईमेल्स, कैलेंडर एंट्रीज़ और संपर्कों की सूची शामिल है। ये दस्तावेज़ यह दिखाते हैं कि एपस्टीन किन-किन लोगों के संपर्क में था — यह नहीं कि वे लोग उसके अपराधों में शामिल थे। यह फर्क समझना बेहद ज़रूरी है। लेकिन सोशल मीडिया पर इस बारीकी को जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया गया। कुछ भारतीय मीडिया पोर्टलों और यूट्यूब चैनलों ने बिना किसी ठोस सबूत के यह संकेत देना शुरू कर दिया कि भारतीय नेता, मंत्री या उद्योगपति भी एपस्टीन के अपराधों से जुड़े हो सकते हैं। नामों को उछालना, स्क्रीन पर लाल घेरे बनाना, और “खुलासा”, “भंडाफोड़”, “सच सामने आया” जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर एक झूठा नैरेटिव गढ़ा गया ।
नाम होना अपराधी होना
यह समझना ज़रूरी है कि किसी दस्तावेज़ में नाम आना अपने आप में अपराध का प्रमाण नहीं होता। एक अंतरराष्ट्रीय कारोबारी या राजनयिक दुनिया में हजारों ईमेल, मीटिंग और औपचारिक संपर्क होते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी समय एपस्टीन से मिला हो या किसी मेल थ्रेड में उसका नाम हो — तो इसका मतलब यह नहीं कि वह उसके आपराधिक नेटवर्क का हिस्सा था।
लेकिन सोशल मीडिया की कार्यप्रणाली इस सादे सच को स्वीकार नहीं करती। वहाँ संकेत को साक्ष्य और सवाल को फैसला बना दिया जाता है। यही वह जगह है जहाँ पत्रकारिता मरती है और प्रोपेगैंडा जन्म लेता है।
क्लिकबाज़ी का धंधा: सच से ज़्यादा व्यूज़ ज़रूरी
इस पूरी कहानी के पीछे सबसे बड़ा कारण है — ध्यान की अर्थव्यवस्था (Attention Economy)।
आज डिजिटल मीडिया में जो सबसे ज़्यादा देखा, साझा और क्लिक किया जाता है, वही “सफल कंटेंट” माना जाता है। सच कितना ठोस है, यह गौण हो गया है। सवाल यह है कि:
क्या हेडलाइन डर पैदा कर रही है?
क्या वीडियो गुस्सा या साज़िश की भावना जगा रहा है?
क्या पोस्ट किसी बड़े नाम को विवाद में घसीट रही है?
अगर जवाब हाँ है, तो कंटेंट वायरल हो जाएगा — भले ही वह अधूरा, भ्रामक या पूरी तरह गलत क्यों न हो। एपस्टीन फाइल्स इस प्रवृत्ति के लिए आदर्श सामग्री थीं: सेक्स स्कैंडल, सत्ता, अमीर लोग, गुप्त द्वीप, और “एलिट नेटवर्क”। भारतीय सोशल मीडिया ने इसे स्थानीय मसाले के साथ परोस दिया।नुकसान किसका होता है?
इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना प्रचार से कई स्तरों पर नुकसान होता है:
व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को क्षति बिना प्रमाण के नाम उछालने से लोगों की छवि धूमिल होती है, जिसे बाद में साफ करना लगभग असंभव हो जाता है।
असल मुद्दे दब जाते हैं
एपस्टीन कांड का मूल सवाल — मानव तस्करी, यौन शोषण, और पीड़ितों को न्याय — शोर में कहीं खो जाता है। मीडिया पर भरोसा टूटता है जब लोग बार-बार अधूरी या झूठी खबरें देखते हैं, तो वे सच पर भी भरोसा करना छोड़ देते हैं। साज़िशी सोच को बढ़ावा हर दस्तावेज़ को “गुप्त साजिश” बताने से समाज में तर्क की जगह शक और अफवाह ले लेती है।
भारतीय संदर्भ में यह और खतरनाक क्यों है ?
भारत में सोशल मीडिया पहले ही अफवाहों के कारण गंभीर सामाजिक नुकसान पहुँचा चुका है। व्हाट्सएप फॉरवर्ड्स से लेकर वायरल वीडियो तक, गलत जानकारी ने हिंसा और ध्रुवीकरण को जन्म दिया है। ऐसे माहौल में एपस्टीन फाइल्स जैसी संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय सामग्री का गैर-जिम्मेदार उपयोग और भी खतरनाक हो जाता है। यह केवल “गलत रिपोर्टिंग” नहीं, बल्कि सार्वजनिक चेतना के साथ खिलवाड़ है । जिम्मेदारी किसकी है?
मीडिया की, जो सनसनी नहीं, संदर्भ दे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की जो झूठ को इनाम न दें और हमारी जो हर वायरल पोस्ट को सच मानने से पहले सवाल करें पत्रकारिता का काम आरोप लगाना नहीं, बल्कि तथ्य सामने रखना है। और नागरिकों का काम है — भीड़ का हिस्सा बनने के बजाय विवेक का इस्तेमाल करना।
निष्कर्ष: शोर नहीं, समझ की ज़रूरत
एपस्टीन फाइल्स एक गंभीर विषय हैं, लेकिन उन्हें जिस तरह भारतीय सोशल मीडिया में इस्तेमाल किया गया, वह इस बात का उदाहरण है कि पब्लिसिटी के लिए कुछ भी किया जा सकता है — चाहे स्तर कितना ही गिर क्यों न जाए ।
अगर हमें सच में न्याय, पारदर्शिता और जवाबदेही चाहिए, तो हमें सनसनी से ऊपर उठना होगा। वरना हर अगला “खुलासा” सिर्फ एक और वायरल झूठ बनकर रह जाएगा