कांग्रेस की राज्यसभा राजनीति: गाली बनाम ग्राउंड, और नेतृत्व का संकट

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पूनम शर्मा
रणनीति के चौराहे पर कांग्रेस

कांग्रेस आज ऐसे राजनीतिक चौराहे पर खड़ी दिखाई देती है जहाँ रणनीति, संगठन और नैरेटिव—तीनों दिशाओं में भ्रम साफ़ नज़र आता है। राज्यसभा भेजे जाने को लेकर पार्टी के भीतर दबाव, टिकट की जोड़-तोड़ और कुछ नेताओं की “टाइम पर छुट्टी”—इन सबके बीच एक बुनियादी सवाल अनुत्तरित है: क्या कांग्रेस संसद में केवल तीखी आवाज़ चाहती है, या ज़मीन पर जीत की ठोस तैयारी?

राज्यसभा की होड़ और आंतरिक दबाव

सूत्रों के अनुसार, कांग्रेस के भीतर कई नेता राज्यसभा में भेजे जाने के लिए ज़ोर लगा रहे हैं। अप्रैल के अंत में होने वाले चुनावों और 2026–27 के सियासी कैलेंडर को देखते हुए यह दबाव और बढ़ गया है। समस्या यह है कि जिन राज्यों में सीटें उपलब्ध हैं, वहाँ कांग्रेस की विधायकों की संख्या सीमित है। गठबंधन की मजबूरियाँ अलग हैं, जिनमें सहयोगी दल पहले से ही अपने दावेदारों के साथ कतार में खड़े हैं।

महाराष्ट्र का उदाहरण: सीटें, सहयोगी और सीमाएँ

महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जहाँ कई राज्यसभा सीटें खाली हो रही हैं, वहाँ कांग्रेस के लिए जगह बनाना आसान नहीं है। उद्धव ठाकरे गुट जैसे सहयोगी दल अपने नेताओं—जैसे प्रियंका चतुर्वेदी—को आगे बढ़ाने में लगे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस नए चेहरों को कहाँ से लाएगी? क्या पार्टी के भीतर प्रतिभा की कमी है, या निर्णय प्रक्रिया में इच्छाशक्ति की?

गाली बनाम ग्राउंड: राजनीति का बदलता पैमाना

पार्टी के भीतर यह धारणा मज़बूत हो रही है कि संसद में ऐसे चेहरे चाहिए जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सबसे आक्रामक हमला कर सकें। भाषा और लहजे की तीव्रता को योग्यता का पैमाना बना दिया गया है। यह रणनीति तात्कालिक सुर्खियाँ तो दिला सकती है, लेकिन क्या इससे जनता का भरोसा लौटता है? ज़मीनी मुद्दों—रोज़गार, महँगाई, किसान, संघवाद—पर ठोस वैकल्पिक नीति के बिना सिर्फ़ विरोध की राजनीति कितनी दूर तक जाएगी?

नेतृत्व की सोच और राहुल गांधी का सवाल

राहुल गांधी की भूमिका को लेकर भी पार्टी में फुसफुसाहट है। आलोचक पूछते हैं कि क्या संगठन निर्माण और नीति-निर्माण से ज़्यादा महत्व अब “कौन सबसे ज़्यादा तीखा बोलेगा” को दिया जा रहा है? मेहनत, अनुशासन और दीर्घकालिक रणनीति के बजाय तात्कालिक बयानबाज़ी पर भरोसा नेतृत्व की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े करता है।

नेता प्रतिपक्ष की भूमिका और संख्या-बल की हकीकत

नेता प्रतिपक्ष की भूमिका को लेकर भी अनिश्चितता बनी हुई है। संसद में संख्या-बल, राज्यों में चुनावी प्रदर्शन और गठबंधन की सच्चाई—इन सबको जोड़ने पर तस्वीर उत्साहजनक नहीं बनती। जिन राज्यों में कांग्रेस की स्थिति कमजोर है, वहाँ राज्यसभा के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में बने रहने की कोशिश दिखती है। लेकिन जब विधानसभा चुनावों में हार का सिलसिला जारी रहता है, तो संसद के भीतर आवाज़ भी धीरे-धीरे खोखली प्रतीत होने लगती है।

संगठनात्मक कमजोरी: तेलंगाना अपवाद, बाकी सवाल

तेलंगाना को छोड़ दें तो कई राज्यों में कांग्रेस का संगठनात्मक ढाँचा जर्जर बताया जा रहा है। बूथ स्तर पर पकड़ कमजोर है, स्थानीय नेतृत्व हाशिये पर है और निर्णय प्रक्रिया अत्यधिक दिल्ली-केंद्रित हो चुकी है। आत्ममंथन के बजाय तात्कालिक जुगाड़ों और आरोप-प्रत्यारोप पर भरोसा करना पार्टी को और पीछे धकेल रहा है।

मानवीय पहलू: कार्यकर्ताओं की दुविधा

सबसे बड़ा मानवीय सवाल पार्टी के कार्यकर्ताओं और मध्य-स्तरीय नेताओं का है। वे पूछते हैं—क्या हमारी मेहनत की कोई क़ीमत है? क्या संसद में जगह पाने की शर्त सिर्फ़ आक्रामक बयानबाज़ी बन चुकी है? जब ज़मीनी संघर्ष की अनदेखी होती है, तो कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है और संगठन और कमजोर पड़ता है।

भरोसा गाली से नहीं, काम से

कांग्रेस का इतिहास बताता है कि पार्टी तब मज़बूत हुई है जब उसने संगठन को प्राथमिकता दी, स्थानीय नेतृत्व को उभारा और वैचारिक स्पष्टता दिखाई। आज ज़रूरत उसी राह पर लौटने की है। राज्यसभा की राजनीति, गठबंधन का गणित और आक्रामक भाषण—ये साधन हो सकते हैं, लक्ष्य नहीं। लक्ष्य है जनता का भरोसा, जो गाली से नहीं, काम से लौटता है।

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