पूनम शर्मा
बिहार की राजनीति में शायद ही कोई परिवार ऐसा हो, जिसके नाम के साथ “घोटाला”, “जमानत”, “सुनवाई” और “फैसला” शब्द दशकों से स्थायी रूप से जुड़े रहे हों। लालू प्रसाद यादव और उनका परिवार अब सिर्फ एक राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि एक लंबा कानूनी-नैतिक प्रश्न बन चुका है, जिसका उत्तर बिहार की जनता वर्षों से प्रतीक्षा में है।
अदालतों में बार-बार अटकते फैसले
बार-बार ऐसा हुआ है कि सुनवाई निर्णायक मोड़ पर पहुंचती है, लेकिन दस्तावेज़ों की कमी, जांच एजेंसियों की असफलता या प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण फैसला टल जाता है। पिछली सुनवाई में भी यही हुआ—सीबीआई समय पर आवश्यक कागजात पेश नहीं कर पाई, और अदालत ने साफ कहा कि साक्ष्य के बिना निर्णय कैसे दिया जा सकता है? यह सवाल सिर्फ अदालत का नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम का है।
सत्ता, अवसर और घोटालों का पैटर्न
मुख्यमंत्री रहते हुए, रेल मंत्री रहते हुए—हर पद के साथ घोटालों की एक नई परत जुड़ती चली गई। चारा घोटाला, ज़मीन-के-बदले-नौकरी, होटल, बेनामी संपत्तियां—ये सिर्फ आरोप नहीं, बल्कि एक लगातार दोहराया गया पैटर्न है। सवाल यही है कि आखिर सत्ता का उपयोग जनकल्याण के लिए था या निजी साम्राज्य खड़ा करने के लिए?
बिहार की आर्थिक कीमत
चीनी मिलें बंद हुईं, उद्योग ठप पड़े, रोजगार खत्म हुए। जिन संपत्तियों पर ताले लटके हैं, वे अगर राज्य के विकास में लगतीं, तो तस्वीर अलग होती। आज जब नई सरकार उन मिलों में स्कूल, प्रशिक्षण केंद्र और रोजगार मॉडल की बात कर रही है, तो यह सवाल और तीखा हो जाता है—पिछले तीस वर्षों में बिहार क्या खो बैठा?
न्यायिक प्रक्रिया और नैतिकता का संघर्ष
बीमारी, उम्र, राजनीतिक दबाव—इन सबके आधार पर बार-बार राहत मिलती रही। लेकिन आम नागरिक पूछता है: क्या कानून सबके लिए समान है? अगर एक गरीब आदमी बीमार होकर अदालत न जाए तो क्या उसे भी वही छूट मिलेगी?
परिवारवाद और पीढ़ीगत आरोप
जब बेटा-बेटी, पत्नी—सभी का नाम किसी न किसी मामले में आता है, तो यह सिर्फ व्यक्तिगत मामला नहीं रह जाता। यह उस राजनीतिक संस्कृति पर प्रश्नचिह्न बन जाता है, जहाँ सत्ता को विरासत और कानून को बाधा समझा जाता है।
बिहार की जनता की प्रतीक्षा
बिहार का आम नागरिक बदले की भावना नहीं चाहता। वह सिर्फ यह जानना चाहता है कि कानून जीवित है या नहीं। फैसला जो भी हो—दोष सिद्ध हो या नहीं—लेकिन वह निष्पक्ष, अंतिम और स्पष्ट हो। आज अगर फैसला आने वाला है, तो वह सिर्फ एक व्यक्ति या परिवार का नहीं होगा। वह बिहार की राजनीति, उसकी नैतिक दिशा और लोकतंत्र की विश्वसनीयता का फैसला होगा।