नक्सलवाद का ढहता किला: जंगल, जनजाति और भारत की नई सुरक्षा रणनीति

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पूनम शर्मा
भारत के भीतर नक्सलवाद एक ऐसा अध्याय रहा है जिसने दशकों तक विकास, सुरक्षा और जनजातीय जीवन—तीनों को बंधक बनाए रखा। दिलचस्प यह है कि जिसकी शुरुआत बंगाल में एक ‘शोषण-विरोधी आंदोलन’ के नाम पर हुई, वह धीरे-धीरे विचारधारा का अपहरण बनकर उभरा—जहाँ संघर्ष की जगह हिंसा, संगठन की जगह हथियार, और जनता की जगह गिरोहों ने कब्ज़ा कर लिया। आज स्थिति यह है कि जिन नक्सलियों ने कभी “क्रांति” का दावा किया था, वही करोड़ों के इनामी आतंकवादी बनकर समर्पण की कतार में खड़े दिखाई देते हैं।

सफलता का नया मानचित्र

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बड़े हिस्सों को ऑफिशियली ‘नक्सल-मुक्त’ घोषित किया जा चुका है। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि एक लंबी सरकारी प्रतिज्ञा का परिणाम है—एक ऐसी सरकार जिसने केवल ऑपरेशन नहीं चलाए, बल्कि विकास को हथियार बनाकर जंगलों तक रास्ते बनाए।
जैसे-जैसे सड़कें पहुँचीं, वैसे-वैसे नक्सलवाद की जड़ें उखड़ती गईं।
क्यों?
क्योंकि सड़कें वहाँ पहुँचती हैं जहाँ राज पहुँचता है—और जहाँ राज्य पहुँचता है, वहाँ नक्सलियों की “सत्ता” का नकली तंत्र ढह जाता है।

विकास बनाम विनाश की राजनीति

नक्सलवाद का सबसे बड़ा सच यही है कि वह विकास का विरोधी है, और विरोध का कारण वैचारिक नहीं, व्यावसायिक है।

सड़कें वे उड़ाते हैं

स्कूल वे उड़ाते हैं

अस्पताल वे जलाते हैं

क्योंकि अगर आदिवासी पढ़-लिख गया, अगर उसकी पहुँच अस्पताल-कॉलेज तक हो गई, तो वह ‘लाल आतंक’ के चंगुल में वापस नहीं आएगा।
नक्सलियों का अस्तित्व तभी तक है जब तक अंधेरा है—रोशनी उनके कारोबार का अंत है।

जंगल—जहाँ क्रांति नहीं, अपराध  फलता है

नक्सली जंगल का इस्तेमाल ‘जनता दरबार’ की तरह नहीं, बल्कि क्राइम कॉरिडोर की तरह करते रहे। उनके लिए जंगल सुरक्षा कवच था—ट्रेन्चेस, गुप्त ठिकाने, हथियारों का ट्रांजिट, विदेशी सप्लाई और मानव तस्करी तक।
यहाँ तक कि आईएसआई और अंतरराष्ट्रीय आतंकी नेटवर्क से अनौपचारिक लेनदेन के भी कई संकेत वर्षों से सुरक्षा एजेंसियों के पास रहे हैं।
पचास वर्षों तक कोई आंदोलन सिर्फ “घरेलू नाराज़गी” से नहीं चलता—बाहरी फंडिंग, हथियार और संरक्षण अनिवार्य हिस्सा होते हैं।

सरेंडर नीति: डर नहीं, व्यवस्था की जीत

आज करोड़ों के इनामी नक्सली करतूतों सहित आत्मसमर्पण कर रहे हैं। सरकार का रुख स्पष्ट है—

जिन्होंने अपराध किए, उनके मुकदमे चलेंगे ,जो मजबूरी में संगठन में धकेले गए आदिवासी युवक हैं, उन्हें पुनर्वास दिया जाएगा,यही मॉडल असम में ULFA के समय सफल रहा था, और आज वही नीति मध्य भारत के जंगलों में परिणाम दे रही है।

अब नया मोर्चा: जंगलों की निगरानी वन्यजीवों से

ये भारत की सबसे अनोखी, परंतु अत्यंत प्रभावी रणनीति है। सरकार ‘चौकसी’ के लिए जंगलों में ऐसे वन्यजीवों को पुनर्स्थापित कर रही है जिनकी सूंघने, मूवमेंट और पैटर्न पकड़ने की क्षमता इंसानी ट्रैकिंग से कहीं अधिक प्रखर है। ट्रेंचेस तक का पता लग जाता है कैंप में इंसानी गतिविधि तुरंत भांप लेते हैं, टैग किए गए जानवरों की मूवमेंट से सुरक्षा बलों को संकेत मिल जाते हैं जब जंगल ही ‘छुपने की जगह’ न रहे, तो नक्सलवाद का आखिरी बचा हुआ

सहारा भी कमजोर हो जाता है। जनजाति बनाम नक्सली – यह संघर्ष अब स्पष्ट है । जनजाति समुदाय अब खुलकर बता रहा है—वे नक्सलियों के साथ नहीं, राज्य और विकास के साथ हैं। नक्सलवाद ने उनकी पीढ़ियों से तेंदूपत्ता के नाम पर शोषण किया, बच्चों को उठाया, महिलाओं के साथ अत्याचार किए और गांवों में भय का साम्राज्य खड़ा किया। आज जब सुकमा हो या मड़ीमरी, वहाँ—

स्कूल चल रहे हैं

आंगनवाड़ी खुल रहे हैं

स्वास्थ्य केंद्र काम कर रहे हैं

सड़कें बनी हैं तो समुदायों ने खुद कहा—“हमें आज़ाद होना है।” यह लड़ाई सिर्फ सुरक्षा की नहीं—आर्थिक स्वतंत्रता की भी है कोयला हो, खनिज हो या अन्य संसाधन—हर जगह नक्सलियों का ‘कट’ लगता था। जहाँ खनन, सड़क या उद्योग जाता, वहाँ पहले “लेवी” पहुँचती थी। इससे न सिर्फ सुरक्षा बल्कि भारत की आर्थिक वृद्धि भी अवरुद्ध थी।

नक्सलवाद की हार = भारत की वृद्धि की आज़ादी।

अंतिम प्रश्न: क्या यह खत्म हो जाएगा? सवाल बार-बार पूछा जाता है—क्या नक्सलवाद कभी लौट सकता है? सच्चाई यह है कि अगर—सड़कें चलती रहीं, शिक्षा पहुँचती रही, जंगलों में निगरानी होती रही ,और जनजातीय समुदाय राजनीतिक-सामाजिक रूप से सशक्त होता रहा तो नक्सलवाद सिर्फ कमजोर नहीं होगा, इतिहास बनेगा।

क्योंकि कोई आंदोलन तब तक जीवित रहता है जब तक लोगों की मजबूरी जीवित है। और आज भारत उस मजबूरी को समाप्त कर रहा है—सड़क, स्कूल, सुरक्षा और सम्मान के माध्यम से।

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