पामेड़ की गूँज : सड़क बनाने वाले हाथों को क्यों चुप करा रहे हैं माओवादी ?

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पूनम शर्मा
छत्तीसगढ़ का बीजापुर—देश के नक्शे पर एक छोटा-सा बिंदु, लेकिन भारत की सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा चुनौती का केंद्र। यहाँ  के पामेड़ क्षेत्र में माओवादियों ने सड़क निर्माण से जुड़े एक ठेकेदार की निर्मम हत्या कर दी। खबर छोटी है, किंतु सवाल बहुत बड़े हैं—क्यों हर बार विकास की एक ईंट गिराने की कीमत किसी की जान से चुकानी पड़ती है? क्यों वे लोग, जो पुल, सड़क, अस्पताल और स्कूल बनाते हैं, इस इलाके में सबसे ज्यादा असुरक्षित होते हैं? और आखिर कब तक माओवाद अपने ही लोगों की प्रगति को गोलियों से रोकता रहेगा?

विकास के विरोध का रक्तरंजित सच

माओवादियों का मूल खेल बहुत स्पष्ट है—जहाँ  सड़क नहीं, वहाँ शासन नहीं। जहाँ  शासन नहीं, वहाँ  उनका जंगल-राज चलता है। सड़क सिर्फ पत्थर-बजरी का ढांचा नहीं होती; वह सुरक्षा बलों को पहुँच  देती है, एम्बुलेंस को समय देती है, बच्चों को स्कूल पहुँचाती  है, किसानों को बाजार दिलाती है और गाँव  को दुनिया से जोड़ती है।

इसीलिए सड़कें माओवादियों को सबसे ज्यादा खटकती हैं। इसीलिए ठेकेदार, सर्वेयर, मजदूर और इंजीनियर उनकी हिट लिस्ट में सबसे ऊपर होते हैं।
और इसी ‘विकास-विरोधी रणनीति’ की कीमत पामेड़ के ठेकेदार को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

जो विकास करने निकले, वही सबसे असुरक्षित

पामेड़ क्षेत्र में सड़क निर्माण, पुल निर्माण और मोबाइल टावर लगाने जैसे कामों में लगे लोग कोई अमीर उद्योगपति नहीं होते। अधिकतर स्थानीय लोग, छोटे ठेकेदार, ट्रैक्टर मालिक, मजदूर और चालक—अपनी रोज़ी-रोटी के लिए काम करने जाते हैं। वे हथियार लेकर नहीं जाते, वे गड्ढे भरने जाते हैं। वे हिंसा फैलाने नहीं जाते, वे गाँवों  को जोड़ने जाते हैं। परन्तु माओवादी उन्हें ‘राज्य का एजेंट’ बताकर मार देते हैं।सिर्फ इसलिए कि उन्होंने विकास की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाया।

माओवादी हिंसा: जनता की ढाल, जनता पर ही वार

माओवाद की सबसे बड़ी विडंबना यही है—वे जिन आदिवासियों के ‘अधिकारों की लड़ाई’ का दावा करते हैं, सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं को पहुँचाते  हैं। सड़क रुकती है तो सबसे पहले जुड़ने की क्षमता  आदिवासी गाँवों  की खत्म होती है। अस्पताल दूर रह जाते हैं। स्कूल का रास्ता कठिन हो जाता है।
गर्भवती महिलाएँ  समय पर इलाज नहीं पा पातीं। युवाओं की रोज़गार की संभावनाएँ  छिन जाती हैं।

ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं कि माओवादी वास्तव में किसके विकास के खिलाफ हैं—सरकार के, या आदिवासी समाज के?

क्या माओवाद को आदिवासी क्षेत्र पथराई अंधेरी बनाना है?

जब भी सड़क बनती है, सड़क के साथ प्रकाश आता है—शाब्दिक और प्रतीकात्मक दोनों रूपों में। सरकार की योजनाएं पहुंचती हैं। युवाओं को स्मार्टफोन मिलता है। नेटवर्क आता है। और तब माओवादियों की वैचारिक बंधक-प्रणाली टूटने लगती है। दरअसल माओवाद को डर सड़क से नहीं है। उन्हें डर है कि सड़क बदल न दे वह भूगोल, जिसे वे पिछले चार दशकों से लाल डर की गिरफ्त में रखे हुए हैं।

राज्य की चुनौती: सुरक्षा या विकास?

बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा—इन क्षेत्रों में सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि विकास जितना तेज़ होगा, नक्सली प्रतिरोध भी उतना ही उग्र होगा। सवाल यह नहीं कि विकास होना चाहिए या नहीं—सवाल यह है कि विकास के रास्ते पर काम करने वालों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी?

हर बार हत्या के बाद सुरक्षा दस्ते भेजना पर्याप्त नहीं। जरूरत है तीन चीज़ों की—

स्थायी सुरक्षा तंत्र, जो मजदूरों और इंजीनियरों की सुरक्षा करे।

जनभागीदारी, जिससे स्थानीय लोग विकास कार्यों को अपना कार्य समझें, न कि सरकार का अभियान।

सूचना नेटवर्क, ताकि माओवादी हमलों की योजना बनने से पहले ही कार्रवाई की जा सके।

आदिवासी समाज की आवाज़—अब बदल रही है

एक महत्वपूर्ण बदलाव अब दिख रहा है—युवाओं के मन में यह प्रश्न तेजी से उठ रहा है कि बाकी भारत आगे क्यों बढ़ रहा है और हम क्यों नहीं?क्यों हमारे गाँव  सड़क से कटे रहें? क्यों हमारे बच्चे बेहतर स्कूल और कॉलेज से दूर रहें? क्यों हमारे खेतों की उपज बाज़ार तक न पहुँचे ? यह बदलाव धीमा है पर गहरा है। यही माओवाद का सबसे बड़ा डर है—आदिवासी समाज का ‘सचेतन जागरण’। पामेड़ की हत्या एक हत्या से अधिक है यह सिर्फ एक ठेकेदार की मृत्यु नहीं। यह उस संघर्ष की झलक है जिसमें एक ओर विकास की इच्छा है, और दूसरी ओर माओवाद की हिंसा। यह उस विभाजन का प्रतीक है जहां हथियार जनता की तरफ नहीं, जनता के खिलाफ खड़े हैं। यह उस सवाल का कड़वा उत्तर है कि भारत 2025 में भी कुछ इलाकों में 1950 जैसा क्यूं दिखाई देता है।

अंतिम प्रश्न—क्या हम यह चक्र तोड़ पाएँगे ?

हर हत्या, हर बम, हर धमकी के बाद वही प्रश्न उठता है—क्या भारत माओवाद की इस हिंसक विरासत को पीछे छोड़ पाएगा? या हम विकास की हर ईंट पर खून की मुहर लगने का इंतजार करते रहेंगे? विकास को रोकने की यह खतरनाक राजनीति आखिर कब तक चलेगी? यह तय करना केवल सरकार का नहीं, समाज का भी दायित्व है—क्योंकि सड़क सिर्फ गाड़ियों के लिए नहीं बनती; वह इतिहास बदलने के लिए बनती है।

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