पूनम शर्मा
पश्चिम बंगाल की राजनीति एक बार फिर उथल-पुथल के दौर में है। सतही तौर पर यह चुनावी हलचल लग सकती है, लेकिन गहराई से देखें तो यह पूरा घटनाक्रम राज्य के सामाजिक समीकरणों से लेकर राष्ट्रीय राजनीतिक संतुलन तक को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। पिछले दो महीनों में घटनाएं जिस दिशा में बढ़ी हैं, वह एक बड़े राजनीतिक पुनर्संयोजन की ओर संकेत करती हैं।
तेलंगाना से लेकर बंगाल तक—’मुस्लिम पार्टी’ की बहस फिर ज़िंदा
कुछ समय पहले तेलंगाना में कांग्रेस मुख्यमंत्री के बयान—“मुसलमानों की असली पार्टी कांग्रेस है”—ने राष्ट्रीय स्तर पर बहस छेड़ दी थी। अब बंगाल में भी वही प्रश्न अचानक केंद्र में आ गया है—मुस्लिम वोट बैंक किसके साथ जाएगा? लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन यह मानकर चल रहा था कि मुस्लिम वोट उनके पास स्वाभाविक रूप से लौट आएंगे। लेकिन यह समीकरण तब उलझ गया जब टीएमसी के पूर्व विधायक हुमायूँ कबीर ने अपनी रैलियों में अभूतपूर्व भीड़ जुटा ली। कबीर की नई राजनीति ने संकेत दिया कि मुस्लिम वोट बेस अब तीन हिस्सों में बंट सकता है—
टीएमसी
कांग्रेस-लेफ्ट
हुमायूँ कबीर की नई धारा
यही वह ‘ट्विस्ट’ है जो आने वाले चुनाव का पूरा परिदृश्य बदल सकता है। टीएमसी की मुश्किलें क्यों बढ़ीं? ममता बनर्जी की सबसे मजबूत पकड़ हमेशा मुस्लिम वोटों पर रही है। लेकिन इस बार दो नई चुनौतियाँ सामने आईं—
1. वक्फ संपत्तियों पर कार्रवाई और असंतोष
राज्य में वक्फ संपत्तियों पर जारी विवाद और केंद्र की डिजिटल पेमेंट-आधारित वक्फ रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया लागू होने से लगभग 82,000 से अधिक संपत्तियों की पारदर्शी जांच शुरू हुई।
इससे वक्फ बोर्ड और उससे जुड़े हितग्राहियों में नाराजगी बढ़ी, जिसका असर मुस्लिम सामाजिक समूहों पर पड़ा।
2. हुमायूँ कबीर का उभार
कबीर ने अपनी रैलियों में भीड़ जुटाकर यह संकेत दिया कि मुस्लिम समाज अब विकल्प ढूंढ रहा है।
उनकी रैलियों में दिखी “ईंट लेकर बाबरी बनाने” जैसे कट्टर नारे इस बात के प्रमाण हैं कि भावनात्मक ध्रुवीकरण लगातार बढ़ रहा है—लेकिन टीएमसी के पक्ष में नहीं।
कांग्रेस-लेफ्ट की उम्मीदें और सीमाएँ
कांग्रेस और लेफ्ट यह मानकर चल रहे थे कि मुस्लिम वोट उनके ऐतिहासिक आधार की ओर लौटेंगे। लेकिन हुमायूँ कबीर का उभार कांग्रेस की रणनीति को दो तरह से चुनौती देता है— मुस्लिम वोट कई टुकड़ों में बंट सकता है I हुमायूँ कबीर और कांग्रेस का कोई स्थायी गठबंधन संभव नहीं
क्योंकि दोनों ही टीएमसी को हराने के लिए मुस्लिम वोट के ‘नेचुरल ओनरशिप’ का दावा करते हैं।
हिंदू वोट कहाँ जाएगा? बड़ा सवाल
पश्चिम बंगाल का “भद्रलोक हिंदू वर्ग” आमतौर पर लेफ्ट या टीएमसी को वोट करता रहा है, सिर्फ इसलिए ताकि बीजेपी सत्ता से दूर रहे।
लेकिन यदि उन्हें लगे कि— मुस्लिम वोट टीएमसी के हाथ से खिसक रहे हैं । टीएमसी अब निर्णायक ताकत नहीं रही तो यही भद्रलोक वर्ग बीजेपी की ओर शिफ्ट हो सकता है।
यही वह ‘कोर टर्निंग पॉइंट’ है जिस पर पूरा चुनाव टिका हुआ है।
त्रिकोणीय मुकाबला—टीएमसी बनाम बीजेपी बनाम मुस्लिम ध्रुवी राजनीति
पहली बार बंगाल में चुनाव तीन-तरफा हो सकते हैं।
1. मुस्लिम वोट: टीएमसी बनाम कांग्रेस/लेफ्ट बनाम कबीर
तीन हिस्सों में संभावित विभाजन।
2. हिंदू वोट: टीएमसी से दूरी और बीजेपी का उभार
हिंदू मतदाता ‘अस्तित्व की लड़ाई’ की राजनीति को लेकर पहले से अधिक सचेत दिख रहा है। कई वीडियो वायरल हुए जहाँ स्थानीय स्तर पर समुदाय-आधारित तनाव साफ दिखता है।
3. टीएमसी का ‘मध्य मार्ग’ फेल
ममता बनर्जी को अब यह समझ आ गया है कि सिर्फ ‘प्रो-मुस्लिम राजनीति’ से काम नहीं चलेगा, इसलिए वह समय-समय पर “हिंदू-फ्रेंडली” इमेज पेश करने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इसका राजनीतिक असर सीमित है क्योंकि दोनों समुदायों का अविश्वास बढ़ रहा है।
राष्ट्रीय राजनीति का संदर्भ: मोदी का ‘1000 साल का खेल’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में अपने एक आलेख और भाषणों में यह कहा कि भारत को “पुरानी मानसिकता से बाहर आने के लिए 10 साल” की जरूरत है।
उनकी बातों में साफ संकेत है कि— वे मुग़ल इतिहास को लेकर नया आख्यान बना रहे हैं .अयोध्या में राममंदिर के पूरा होने के बाद हिंदू पुनर्जागरण की बड़ी परियोजना को आगे बढ़ाया जाएगा I इसलिए बीजेपी के लिए बंगाल सिर्फ एक चुनाव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक जीत की लड़ाई है।
बंगाल: सिर्फ राज्य की नहीं, देश की लड़ाई?
बीजेपी समर्थक बंगाल चुनाव को “भारत को बचाने की लड़ाई” के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। उनके अनुसार— नवरात्रि, दुर्गापूजा, हनुमान जयंती जैसे उत्सवों पर बढ़ते प्रतिबंध सामाजिक ध्रुवीकरण ,मुस्लिम नेतृत्व की बयानबाज़ी, एक व्यापक सांस्कृतिक संघर्ष के संकेत हैं। क्या हुमायूँ कबीर टीएमसी के ‘छिपे सहयोगी’ हैं?
यह आरोप कई विपक्षी समूह लगा रहे हैं कि— “हुमायूँ कबीर की पार्टी टीएमसी की ‘वोट-कटवा रणनीति’ का हिस्सा है।” लेकिन इस दावे का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। उल्टा, राजनीतिक विश्लेषण यह बताता है कि—
कबीर की सफलता टीएमसी के लिए खतरा है ,उनकी पार्टी को टीएमसी का समर्थन मिलने की संभावना बेहद कम है ,मुस्लिम वोट का विभाजन टीएमसी का नुकसान और बीजेपी का फायदा कर सकता है
अगला चरण: बंगाल चुनाव का मनोवैज्ञानिक परिणाम पहले ही आ चुका?
आपने अपने मूल कंटेंट में कहा था कि “आज 50% चुनाव का रिजल्ट साफ हो गया है”— इसका अर्थ यह है कि ट्रेंड बन चुका है, सिर्फ वोटिंग और गिनती बाकी है। और ट्रेंड यह दिखा रहा है— टीएमसी को मुस्लिम वोट में भारी नुकसान ,कांग्रेस-लेफ्ट को सीमित लाभ, हुमायूँ कबीर नया कारक ,हिंदू वोट में ध्रुवीकरण ,बीजेपी के लिए माहौल पहले से बेहतर I
निष्कर्ष
पश्चिम बंगाल का आगामी चुनाव साधारण राजनीतिक मुकाबला नहीं, बल्कि— मुस्लिम वोट का पुनर्वितरण, ,हिंदू वोट का पुनर्संरेखण ,टीएमसी सत्ता की सबसे बड़ी परीक्षा ,बीजेपी के लिए सांस्कृतिक-राजनीतिक अवसर है और कांग्रेस-लेफ्ट के लिए संघर्ष का आखिरी दौर बन चुका है। यही कारण है कि सभी पक्ष इसे अस्तित्व की लड़ाई कह रहे हैं— चाहे वह टीएमसी हो, कांग्रेस, लेफ्ट, बीजेपी या हुमायूँ कबीर।