
राहुल गांधी का ताज़ा बयान—कि भारत सरकार विदेशी नेताओं को उनसे मिलने नहीं देती—ने संसद के भीतर और बाहर एक बार फिर बहस छेड़ दी है। लेकिन इस शोर-शराबे के पीछे वही पुराना पैटर्न दिखाई देता है I बड़े-बड़े आरोप, पूरे आत्मविश्वास से, जो तथ्यों की कसौटी पर टिक नहीं पाते। असल समस्या यह है कि इस आरोप के तथ्य शुरू से ही इसके खिलाफ खड़े हैं।
पिछले डेढ़ साल में राहुल गांधी ने कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों और प्रमुख नेताओं से बिना किसी सरकारी रुकावट के मुलाकातें की हैं।
— 10 जून 2024 को बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना उनसे मिलीं।
— 21 अगस्त 2024 को मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम से मुलाकात हुई।
— 1 अगस्त 2024 को वियतनाम के प्रधानमंत्री,
— 8 मार्च 2025 को न्यूज़ीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लकसन,
— और 16 सितंबर 2025 को मॉरीशस के प्रधानमंत्री नविनचंद्र रामगुलाम उनसे मिले।
ये सभी मुलाकातें औपचारिक, सार्वजनिक और दस्तावेजों में दर्ज हैं। इनमें कहीं भी सरकार द्वारा रोकने या बाधा डालने जैसी बात सामने नहीं आई।
MEA का स्पष्ट प्रोटोकॉल
विदेश मंत्रालय पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि वह केवल सरकारी अधिकारियों और संस्थाओं से विदेशी नेताओं की मुलाकात तय करता है। सरकार के बाहर की मुलाकातें—जैसे विपक्ष के नेता से—पूरी तरह विदेशी प्रतिनिधिमंडल की इच्छा पर निर्भर करती हैं। इसमें ना कोई अपमान है, ना राजनीति, ना डर। यह दुनिया भर में मान्य मानक प्रक्रिया है। राहुल गांधी इसे अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए यह आरोप और भी संदिग्ध हो जाता है।
आरोपों का पुराना इतिहास
यह विवाद कोई अलग घटना नहीं है। राहुल गांधी का लंबे समय से ऐसा इतिहास रहा है कि उनके दावे अक्सर तथ्यों के सामने ढह जाते हैं।
चाहे राफेल का मुद्दा हो, या “चौकीदार चोर है” का नारा, या LIC-SBI पर डर फैलाने वाले बयान, या भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह—
हर बार ऐसा ही हुआ कि दावा बड़ा था, सुर्खियां बनीं, लेकिन बाद में तथ्य पूरी कहानी बदल गए। इससे उनकी विश्वसनीयता लगातार कमजोर हुई है।
सबसे बड़ा उदाहरण वह क्षण था जब राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा जारी की गई अपनी ही पार्टी की अधिसूचना को मीडिया के सामने फाड़ दिया था। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यह घटना उनकी विश्वसनीयता के पतन की शुरुआत थी—पार्टी में भी और देश की राजनीति में भी।
राष्ट्रीय पर्वों में अनुपस्थिति—प्रश्न अनुत्तरित
सबको पता है कि राहुल गांधी स्वतंत्रता दिवस के लालकिले समारोह या गणतंत्र दिवस की परेड में भाग नहीं लेते।
प्रश्न यह है—क्यों?
क्या उन्हें कोई रोक रहा है?
क्या वे खुद इन राष्ट्रीय उत्सवों से दूरी बनाते हैं?
इस पर भी जनता को स्पष्ट जवाब मिलना चाहिए।
भारत पर उनकी नकारात्मक धारणा—किसके हित में?
राहुल गांधी कहते हैं कि वे “भारत का दूसरा दृष्टिकोण” दुनिया के सामने रखते हैं। लेकिन यह दृष्टिकोण क्या है? क्या भारत की अर्थव्यवस्था “मृत” है?
क्या ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत ने “समर्पण” कर दिया था? क्या भारत “फेल्ड डेमोक्रेसी” है?
ये वाक्य अक्सर उनकी विदेश यात्राओं और भाषणों में सुनाई देते हैं—वही कथा जिसे पश्चिमी थिंक टैंक और सोरोस-समर्थित संस्थाएँ आगे बढ़ाती हैं।
यह दृष्टिकोण भारतीयों के वास्तविक अनुभव और विश्व रैंकिंग से मेल नहीं खाता।
अंतरराष्ट्रीय मुलाकातें और संदिग्ध संगत
राहुल गांधी ने कई ऐसे व्यक्तियों और समूहों से मुलाकात की है जिनकी भारत-विरोधी छवि रही है।
— कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष openly लेने वाली इल्हान ओमर से मुलाकात,
— बांग्लादेश के विवादित पत्रकार मुश्फ़िक़ुल फ़ज़ल अंसारी से संपर्क,
— डोकलाम तनाव के दौरान चीनी राजदूत से गुप्त बैठक,
— सोरोस नेटवर्क से जुड़े समूहों के कार्यक्रमों में भागीदारी,
— IAMC जैसे संगठनों के मंचों पर उपस्थिति, जिन्हें भारत विरोधी इस्लामी प्रोपेगेंडा से जोड़ा जाता है।
ये सब सामान्य कूटनीति का हिस्सा नहीं दिखते, बल्कि भारत-विरोधी नैरेटिव से मेल खाते प्रतीत होते हैं।
भारत को विपक्ष चाहिए—लेकिन भरोसेमंद
भारत की लोकतांत्रिक संरचना में मजबूत और तथ्य आधारित विपक्ष आवश्यक है।लेकिन विपक्ष वैसा ही मजबूत हो सकता है जब उसके दावे तथ्य आधारित हों, न कि हर बार तत्काल फैक्ट-चेक की जरूरत पड़े। आज आम नागरिक यह पैटर्न साफ देख रहा है— राहुल गांधी के लगभग हर बड़े दावे के बाद तथ्य बिल्कुल उलटी दिशा में निकलते हैं। यह सिर्फ उनकी विश्वसनीयता नहीं, बल्कि पूरे विपक्ष को अप्रभावी और कमजोर करता है।
निष्कर्ष
सवाल यह नहीं है कि सरकार विदेशी नेताओं को उनसे मिलने से रोक रही है—इसका जवाब स्पष्ट है: ऐसा नहीं है। सही सवाल है: क्या इतने बार गलत दावे करने वाले नेता पर देश और दुनिया के सामने भारत का प्रतिनिधित्व करने का भरोसा किया जा सकता है?
जब तक राहुल गांधी अपने बयानों और वास्तविकता के बीच की खाई को स्वीकार नहीं करते, तब तक उनके हर नए आरोप को गंभीर तथ्य नहीं, बल्कि राजनीतिक नाटक ही माना जाएगा। और नाटक चाहे कितना भी नाटकीय हो, विश्वसनीयता का स्थान नहीं ले सकता।