संविधान सभी को जोड़ने वाली भावना का प्रतीक-डॉ. मोहन भागवत

भारतीय इतिहास, संस्कृति और संविधान पर राष्ट्रीय सेमिनार की शुरुआत

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समग्र समाचार सेवा
पट्टी कल्याण, समालखा | 06 दिसंबर:अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना द्वारा 05 से 07 दिसंबर 2025 तक माधव सेवा न्यास, पट्टी कल्याण, समालखा (पानीपत) में ‘भारतीय इतिहास, संस्कृति और संविधान’ विषय पर सेमिनार का आयोजन किया जा रहा है। सरसंघचालक जी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद द्वारा ‘जम्मू-काश्मीर-लद्दाख’ पर आधारित चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन एवं अवलोकन किया। उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक, डॉ. मोहन भागवत जी; विशिष्ट अतिथि केन्द्रीय संस्कृति मंत्री, भारत सरकार गजेन्द्र सिंह शेखावत जी; प्रो. रघुवेन्द्र तंवर जी (पद्यश्री) अध्यक्ष आई.सी.एच.आर., शिक्षा मंत्रालय; अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के मुख्य संरक्षक गोपाल नारायण सिंह जी, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. देवी प्रसाद सिंह जी, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. ईश्वरशरण विश्वकर्मा जी, राष्ट्रीय संगठन सचिव डॉ. बालमुकुंद पाण्डेय जी उपस्थित रहे।

डॉ. भागवत जी ने अपने संबोधन में कहा कि संविधान एक लिखित साक्ष्य है। देश समाज को इसी के अनुरूप चलना पड़ता है। लेकिन क्या समाज पहले ऐसे ही चलता था, जब संविधान नहीं था तब समाज कैसे चलता था, क्या तब हमारा देश नहीं था, यह राष्ट्र नहीं था। युगों-युगों की सुदीर्घ परम्परा में शासन की कोई व्यवस्था ही नहीं थी क्योंकि उसकी आवश्यकता नहीं थी। कोई संविधान भी नहीं था, फिर भी जीवन चल रहा था। यह कैसे चला? एक धर्म तत्त्व है, धर्म का अर्थ रिलिजन बिल्कुल नहीं है। भारतीय भाषाओं में धर्म शब्द का अर्थ सभी को धारण करने वाला, सभी को सुख देने वाला, सभी को जोड़ कर चलने वाला, सबके अपने-अपने स्वभाव के अनुसार सबको सुख मिले यह निर्धारित करने वाला, परस्पर व्यवहार में संतुलन लाकर सबको एक साथ ऊपर उठाने वाला जो प्राकृतिक नियम है, उसे धर्म कहते हैं। उस धर्म का बोध सभी मानव में तीव्रतर था। इसलिए किसी राजा की आवश्यकता नहीं थी और संविधान की आवश्यता भी नहीं थी। परस्पर रक्षा धर्म तत्त्व के आधार पर करते हुए प्रजा सुख से जीवन निर्वहन करती थी।

उन्होंने कहा कि मनुष्य के बल बुद्धि चिन्तन में गिरावट आई। सतयुग समाप्त हुआ, त्रेतायुग फिर द्वापर और अब कलियुग आया। उस गिरावट के कारण राजा की आवश्यकता उत्पन्न हुई। तब से लेकर अब तक राजा की भूमिका प्रजा का और धर्म का संरक्षण करना रही है। लेकिन समय बदलने के साथ नियंत्रण के लिए और राजा को शक्ति देने वाली एक संस्था की आवश्यकता हुई, यही संविधान है। संविधान धर्म के आधार पर ही चलता है, लेकिन मनुष्य के चित्त में आई विकृति के कारण अधर्म न हो, इसलिए संविधान लागू करने की आवश्यकता हुई। संविधान पालन करने वाले लोग भी चाहिए, इसलिए एक तरह राजा का नियम है, उसको शक्ति संविधान ने दी है। संविधान का मान-सम्मान रखते हुए लोग गलती न करें, किसी के मन में इसके उल्लंघन का विचार न आए—यह इसी की भूमिका है। धर्म के आधार पर आचरण करने की परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही। इसी संस्कार को बनाए रखने के लिए संविधान की आवश्यकता है, जो संस्कृति के आधार पर संविदा का पालन कराता है और पथ भ्रमित होने पर दण्ड भी देता है।

उन्होंने कहा कि संविधान में सभी को साथ लेकर चलने की भावना निहित है क्योंकि इसकी प्रस्तावना का पहला शब्द ही ‘हम’ से प्रारंभ होता है। अंग्रेजों के काल में ‘हम’ शब्द की कोई मान्यता नहीं थी क्योंकि वे इस देश को राष्ट्र मानते ही नहीं थे, बल्कि राष्ट्रों का जमावड़ा मानते थे। जबकि संविधान ‘हम भारत के लोग’ पर विश्वास करता है। यह भावना अनादि काल से चली आ रही है, जिसका प्रमाण संविधान के पृष्ठों पर लगाए गए चित्र भी हैं। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि भारत का संविधान बनाने वाले लोग भारत के संस्कारों और संस्कृति से सराबोर थे। उन्होंने कहा कि हमें अपनी परम्परा के सही तथ्य और सत्यपरक बातों को निकालकर समाज के सामने प्रस्तुत करना होगा और यह समझाना होगा कि हमारी संस्कृति और संविधान का जुड़ाव कितना गहरा है। समझदारी से ही देश चलता है। समझदारी सबमें है, पर वह सुप्त अवस्था में है। उसे सही तथ्य और सही इतिहास के आधार से जगाना होगा। यही भावना समाज को आगे बढ़ाएगी और विश्व को भी नयी दिशा देगी। इसके लिए सबको मिलकर संकल्प लेना होगा।

गजेन्द्र सिंह शेखावत जी ने कहा कि इतिहास का पुर्नलेखन आवश्यक है। 50 वर्ष पूर्व कोई यह कल्पना नहीं कर सकता था कि भारत राष्ट्रीय पुनर्जागरण के ऐसे दौर में प्रवेश करेगा, जहाँ इतिहास भारतीय संस्कृति पर आधारित होगा। उन्होंने कहा कि भारतीय इतिहास चेतना का महासागर है और यह निरंतर प्रवाह है, जो दो हजार वर्षों के आक्रमणों के बाद भी कायम रहा। एआई का सही प्रयोग और पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण समय की आवश्यकता है। प्रो. राघुवेंद्र तंवर ने कहा कि संविधान को समझने के लिए भारत और उसकी संस्कृति को समझना आवश्यक है। विभाजन ने समाज को बहुत नुकसान पहुँचाया। गोपाल नारायण सिंह ने कहा कि हज़ारों वर्षों के आक्रमण से इतिहास बिखर गया है, लेकिन संकलन और पुनर्लेखन के प्रयास सराहनीय हैं। डॉ. देवी प्रसाद सिंह ने अपनी कविता ‘यदि संविधान की वाणी होती’ के माध्यम से स्पष्ट किया कि संविधान को भारतीय संस्कृति से अलग कर नहीं देखा जा सकता।

अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य सुरेश सोनी जी, उत्तर क्षेत्र संघचालक पवन जिंदल जी सहित अनेक गणमान्य उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन प्रो. ईश्वरशरण विश्वकर्मा ने किया और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. रमेश धारीवाल ने किया। सभागार में देशभर से लगभग 1500 इतिहासकार उपस्थित हुए, जिसमें पहले दिन 120 शोध-पत्रों का वाचन हुआ। आगामी दो दिनों में लगभग 230 शोध-पत्रों का वाचन किया जाएगा।

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