पुतिन की भारत यात्रा से बढ़ी अमेरिका की बेचैनी, 25 साल की साझेदारी पर असर

25 साल की साझेदारी पर अविश्वास की छाया, रणनीतिक दबावों के बीच अमेरिका-भारत रिश्तों में खिंचाव

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
  • भारत-अमेरिका सामरिक तालमेल पर अविश्वास, व्यापार विवाद और भू-राजनीतिक खींचतान का असर
  • विशेषज्ञों का आकलन: मोदी-पुतिन मुलाकात “गलत समय”, पर भारत की रणनीतिक स्वायत्तता स्पष्ट
  • अमेरिका में यह धारणा कमजोर कि भारत उसका “प्राकृतिक सहयोगी” है
  • चीन का उभार अब भी दोनों देशों को साथ लाने की सबसे बड़ी ताकत, पर भरोसा बहाल करना चुनौती

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 5 दिसंबर: रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा जहां दिल्ली में कूटनीतिक गर्मजोशी का माहौल बना रही है, वहीं वाशिंगटन में बेचैनी साफ महसूस की जा रही है। पिछले 25 वर्षों में भारत और अमेरिका ने जिस सामरिक साझेदारी पर सबसे ज्यादा निवेश किया, वह अब भरोसे के संकट, व्यापार विवादों और भू-राजनीतिक दबावों से लगभग जकड़ चुकी है। ऐसे दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पुतिन की मेजबानी ने अमेरिका के सियासी गलियारों में असहजता और बढ़ा दी है।

वॉशिंगटन स्थित सेंटर फॉर अ न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी (सीनैस) की एक चर्चा में विशेषज्ञों ने माना कि संबंधों में गिरावट उसी समय हो रही है जब वैश्विक शक्ति-संतुलन सबसे तेजी से बदल रहा है।
सीनैस के सीईओ रिचर्ड फोंटेन ने कहा,
“भारत और अमेरिका ने 25 वर्षों तक चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर साझेदारी को मज़बूत किया, लेकिन अब हम बिल्कुल अलग जगह पर खड़े हैं।”

सीनैस की वरिष्ठ फेलो और हिंद-प्रशांत कार्यक्रम की निदेशक लीज़ा कर्टिस ने स्थिति को और साफ करते हुए कहा कि संबंध “25 साल के सबसे बदतर चरण” में हैं। उनके अनुसार, मोदी-पुतिन मुलाकात वाशिंगटन को “गलत टाइमिंग” लग सकती है, लेकिन भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता दिखाने में कभी हिचका नहीं है।
कर्टिस ने कहा,
“भारत ने संदेश दिया है कि वह अमेरिका से डरकर फैसले नहीं करता। उसकी विदेश नीति बहुध्रुवीय है।”

हडसन इंस्टीट्यूट की विशेषज्ञ लिंडसे फोर्ड ने एक और गंभीर पहलू रखा,
“दोनों देशों में अब वैसा कोई राजनीतिक नेतृत्व नहीं दिखता जो रिश्तों को निजी ऊर्जा से आगे बढ़ाए। अमेरिका–भारत साझेदारी कभी आसान नहीं थी।”
उनके अनुसार, चीन का दबदबा ही वह ताकत है जो दोनों देशों को अनिवार्य रूप से फिर करीब ला सकता है—लेकिन पहले भरोसा लौटाना होगा।

ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की तन्वी मदान ने स्पष्ट किया कि भारत की हालिया रूस-चीन कूटनीति किसी “नई धुरी” की शुरुआत नहीं है, बल्कि उसकी पुरानी विविधताभरी रणनीति (multi-alignment) की निरंतरता है।
उन्होंने यह भी चेताया कि
“मास्को के पाकिस्तान और चीन के साथ बढ़ते सामरिक संबंधों ने भारत-रूस साझेदारी की अपनी सीमाएं तय कर दी हैं।”

इसके बावजूद भारत और अमेरिका रक्षा अभ्यास, तकनीकी सहयोग और इंडो-पैसिफिक ढांचे में “कार्यात्मक साझेदारी” बनाए हुए हैं लेकिन उच्च-स्तर पर विश्वास की खाई गहरी होती जा रही है।

विशेषज्ञों के मुताबिक, मोदी–पुतिन मुलाकात उस खाई को और चौड़ा करती दिख रही है, क्योंकि यह अमेरिका को संकेत देती है कि भारत अपनी कूटनीति में किसी एक ध्रुव पर निर्भर नहीं है।

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.