यूक्रेन संकट: ‘पश्चिमी नीति भ्रम, रणनीति नहीं’

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सुबोध मिश्रा
कई बार हैरानी होती है कि दुनिया की सबसे बड़ी शक्तियाँ इतिहास से कुछ नहीं सीखतीं—न प्राचीन इतिहास से और न ही कल की घटनाओं से।

ईरान पर दहाड़ने, धमकाने और प्रतिबंध लगाने से कुछ हासिल नहीं हुआ। और अब वही अमेरिका और उसके पश्चिमी साथी सोचते हैं कि रूस जैसी महाशक्ति पर प्रतिबंध लगाकर उसे यूक्रेन से पीछे हटाया जा सकता है। यह रणनीति नहीं, मूर्खता है।

राष्ट्रपति ट्रंप को NATO के युद्धघोष को और तेज करने के बजाय अपनी पुरानी नीति पर लौटना चाहिए—पुतिन को दुश्मन नहीं, बल्कि विश्व स्थिरता के लिए एक भरोसेमंद साझेदार की तरह देखना। रूस पर लगाए गए दंडात्मक प्रतिबंध हटाकर, बातचीत शुरू कर, और ज़ेलेंस्की को समझाकर—जो अपने देश को पागलपन की हद तक बर्बादी की ओर ले जा रहे हैं—ही यूक्रेन को विनाश से बचाया जा सकता है।

ट्रंप सही थे—बाइडन द्वारा पुतिन को G-7 से निकालकर अपमानित करना ही इस संकट की जड़ है। आज न सिर्फ यूक्रेन, बल्कि अमेरिका और NATO देशों के नागरिक भी रूस के तेल-गैस पर प्रतिबंध का आर्थिक नरक भुगत रहे हैं।

रूस पूरी तरह सही नहीं है, लेकिन सबसे बड़ी ग़लती तो तब हुई जब गोर्बाचेव ने सोवियत संघ तोड़ा और रणनीतिक क्षेत्रों को बिना सोचे-समझे छोड़ दिया। अगर वे दृढ़ रहते, तो वे क्षेत्र कभी NATO में जाने का सपना भी नहीं देखते।

क्या अमेरिका कभी यह स्वीकार करेगा कि उसका पड़ोसी चीन या रूस के सैन्य गठबंधन में शामिल हो जाए?
अगर नहीं—तो फिर रूस पर ऐसी उम्मीद क्यों थोपी जाती है?

सच तो यह है कि रूस लंबे समय तक अमेरिका और यूरोप का बड़ा निवेशक रहा है—विज्ञान, तकनीक, खेल, हर क्षेत्र में।

अगर शुरू से कूटनीति अपनाई जाती, तो आज अरबों डॉलर की संपत्ति फ्रीज़ नहीं होती और न ही रूस चीन की ओर पूरी तरह झुकता।

अगर पश्चिम ने आज भी अपनी अकड़ नहीं छोड़ी, तो वह खुद को अलग-थलग करे लेगा—और चीन एकमात्र विश्व महाशक्ति के रूप में उभरेगा, जबकि पश्चिम अंधेरे में खड़ा देखता रहेगा।

सुबोध मिश्रा

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