सीजेआई गवई: न्यायिक स्वतंत्रता या असंवैधानिक हस्तक्षेप ?

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पूनम शर्मा
देश के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी.वाई. गवई द्वारा ट्रिब्यूनल जजों की नियुक्तियों में व्यक्तिगत नियंत्रण लेने की हालिया कार्रवाइयों ने संवैधानिक दृष्टिकोण से गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। भारत में न्यायिक स्वतंत्रता संविधान का महत्वपूर्ण स्तंभ है, परंतु गवई की कार्रवाई संवैधानिक सीमाओं से परे प्रतीत होती है और यह एक असंवैधानिक और निरंकुश प्रवृत्ति का उदाहरण स्थापित करती है।

भारत में विशेष ट्रिब्यूनलों की परंपरा रही है, जो क्षेत्र-विशेष मामलों का विशेषज्ञता और त्वरित निपटान सुनिश्चित करते हैं। इनमें इनकम टैक्स ट्रिब्यूनल, सेल्स टैक्स ट्रिब्यूनल, ग्रीन ट्रिब्यूनल और वक्फ बोर्ड ट्रिब्यूनल शामिल हैं। इन ट्रिब्यूनलों के लिए नियुक्तियां प्रायः संबंधित कानून या नियमों के अनुसार होती हैं, जिसमें सरकार, न्यायिक कॉलेजियम या अन्य निर्धारित प्राधिकरणों की भूमिका होती है। महत्वपूर्ण यह है कि कानून में कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि सीजेआई व्यक्तिगत रूप से वक्फ बोर्ड ट्रिब्यूनल के जज नियुक्त कर सकते हैं।

सीजेआई गवई ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में कई ट्रिब्यूनल, जिनमें वक्फ बोर्ड ट्रिब्यूनल भी शामिल हैं, में नियुक्तियों पर कोई निर्णय नहीं दिया  । यह कार्य संवैधानिक सीमाओं को सीधे चुनौती देता है। कानून या संविधान के तहत सीजेआई को ऐसी नियुक्तियों का अधिकार नहीं है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के नाम पर अपने व्यक्तिगत विवेक का प्रयोग करना, कानून के दायरे से बाहर कदम उठाना है।

केंद्रीकरण का तर्क—

नियुक्तियों की त्वरितता और लंबित मामलों का निपटान—वास्तव में एक व्यावहारिक आवश्यकता हो सकती है। भारत में ट्रिब्यूनलों में लंबित मामलों की संख्या अत्यधिक है, और नियुक्तियों में देरी न्याय के प्रभाव को प्रभावित करती है। फिर भी, कार्यक्षमता संवैधानिक अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकती। सरकार और कॉलेजियम की सलाह को दरकिनार करके नियुक्तियों का एकतरफा निर्णय लेना, न्यायपालिका की पारदर्शिता और विधिक प्रक्रिया के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है।

कुछ रिपोर्ट्स में चयनात्मक और समुदाय विशेष के पक्ष में नियुक्तियों की भी आलोचना की गई है। समुदाय प्रतिनिधित्व, वक्फ ट्रिब्यूनल जैसी संस्थाओं में एक महत्वपूर्ण आधार होता है। गवई की एकतरफा नियुक्तियों ने इस संतुलन को दरकिनार किया, जिससे न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और संवैधानिक वैधता पर सवाल उठते हैं।

नियुक्तियों का समय भी सवाल खड़ा करता है:

सेवानिवृत्त होने से पूर्व गवई ने कई निर्णयों को तेजी से लागू किया, जिससे सरकार या कॉलेजियम की भागीदारी सीमित रही। भले ही तर्क यह दिया गया कि यह कार्य दक्षता के लिए था, पर कार्यकाल के अंत में शक्ति का केंद्रीकरण न्यायपालिका की तटस्थता की छवि को कमजोर करता है।

ये उदाहरण  असंवैधानिक हैं सैद्धांतिक और कानूनी रूप से भी। संविधान या किसी कानून में सीजेआई को वक्फ बोर्ड या अन्य विशेष ट्रिब्यूनलों में जजों की व्यक्तिगत नियुक्ति करने का अधिकार नहीं दिया गया है। इस सीमा को पार कर केंद्रीयकरण करने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत विवेक के बीच रेखा धुंधली हो जाती है।

निष्कर्ष

चाहे न्यायिक स्वतंत्रता को मजबूत करने के नाम पर की गई हो, सीजेआई गवई की कार्रवाई संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन प्रतीत होती है। कानून के दायरे से बाहर नियुक्तियों, चयनात्मक फैसलों और समुदायिक असंतुलन ने यह दिखा दिया है कि न्यायिक स्वायत्तता का दुरुपयोग लोकतंत्र के स्तंभ को व्यक्तिगत सत्ता के उपकरण में बदल सकता है। वास्तविक स्वतंत्रता में स्वायत्तता, कानून का पालन, निष्पक्षता और जवाबदेही का संतुलन होना आवश्यक है।

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