’क्या आरक्षण का लक्ष्य भटक रहा है ?

“आरक्षण के बेहतर वितरण की जरूरत: CJI गवई बोले—‘सिर्फ कुछ परिवार ही लाभ न उठाएँ"

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पूनम शर्मा
भारत में आरक्षण प्रणाली केवल एक संवैधानिक प्रावधान भर नहीं है यह सामाजिक न्याय , ऐतिहासिक अन्याय की भरपाई और समान अवसर सुनिश्चित करने का एक ऐसा साधन है जिसने लाखों लोगों के जीवन की दिशा बदली है । परंतु समय के साथ , आरक्षण के भीतर “कौन लाभार्थी होना चाहिए”—यह प्रश्न उतना ही महत्वपूर्ण बन गया है जितना कि खुद आरक्षण का सिद्धांत । इसी संदर्भ में CJI बी.आर. गवई का ताजा बयान भारतीय सामाजिक नीति के केंद्र में एक नई और जटिल बहस को जन्म देता है क्या आरक्षण का लाभ उन लोगों को मिलना चाहिए जो वास्तव में वंचित हैं , या उन सभी को जो SC/ST सूची में शामिल हैं , चाहे वे अब सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़ चुके हों ? यह प्रश्न केवल कानूनी नहीं , बल्कि नैतिक , सामाजिक और राजनीतिक सभी स्तरों पर गहरा प्रभाव डालता है ।

आरक्षण का मूल उद्देश्य और वर्तमान वास्तविकता आरक्षण का मूल लक्ष्य था— सदियों से उत्पीड़ित समुदायों को शिक्षा , नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बराबरी का अवसर देना , और उन सामाजिक बाधाओं को कम करना जिन्हें जाति-आधारित भेदभाव ने मजबूत किया था । लेकिन पिछले तीन दशकों में सामाजिक बदलावों के चलते SC/ST समुदायों के भीतर भी एक नया वर्ग उभरा है— आर्थिक रूप से सशक्त , उच्च-शिक्षित , और प्रभावशाली “क्रीमी लेयर” , जो अक्सर आरक्षण का सबसे अधिक लाभ उठा रहा है । यहाँ  सवाल उठता है—क्या आरक्षण के लाभ ऐसे परिवारों को भी समान रूप से मिलने चाहिए जो अब सामाजिक-आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो चुके हैं ?

CJI गवई का तर्क अवसरों का पुनर्वितरण

CJI गवई ने स्पष्ट कहा कि एक IAS अधिकारी का बच्चा और एक खेत मजदूर का बच्चा एक समान सामाजिक स्थिति में नहीं खड़े हैं । उनका तर्क यह है कि— आरक्षण का उद्देश्य सबसे वंचितों तक पहुँचना है , न कि पहले से आगे निकले परिवारों को आगे बढ़ाना । यदि SC/ST में आर्थिक-सामाजिक रूप से सक्षम समूह मौजूद है , तो उन्हें बिना सीमा के आरक्षण का लाभ देते रहना न्याय के मूल तर्क के विपरीत है । “इंद्रा साहनी केस” में OBC क्रीमी लेयर लागू होने का आधार SC/ST पर भी सिद्धांत रूप में लागू हो सकता है । यह दृष्टिकोण सामाजिक न्याय की पुनर्परिभाषा की माँग  करता है— यानि  आरक्षण “जाति” के साथ-साथ “सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता” को भी ध्यान में रखे ।

केंद्रीय सरकार का रुख

संविधान के भीतर कोई क्रीमी लेयर नहीं इसके ठीक विपरीत , केंद्रीय सरकार का मत है कि SC/ST वर्गों में क्रीमी लेयर की अवधारणा का संविधान में प्रावधान नहीं है । डॉ. अंबेडकर ने आरक्षण को जाति-आधारित सामाजिक भेदभाव की भरपाई के रूप में देखा था , न कि आर्थिक वर्गीकरण के रूप में । सरकार का तर्क है कि— आर्थिक स्थिति बदलने से सामाजिक भेदभाव खत्म नहीं होता , और SC/ST समुदाय के सामाजिक अनुभव जाति संरचना के कारण अब भी भिन्न और जटिल हैं । यह दृष्टिकोण कहता है कि आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद जाति के कारण सामाजिक बहिष्कार और भेदभाव जारी रहता है , इसलिए क्रीमी लेयर लागू करना न्यायसंगत नहीं । राज्यों और न्यायपालिका का टकराव नीति किस दिशा में जाए ? 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि— SC/ST के भीतर उप-वर्गीकरण sub-classification पूरी तरह वैध है , और राज्य इस पर नीतियाँ बना सकते हैं । इससे व्यापक नीति प्रश्न उठता है क्या राज्य अलग-अलग जाति समूहों की वास्तविक प्रगति का अध्ययन करके आरक्षण का वितरण बदलें ? क्या SC/ST के भीतर वे जातियाँ जिन्हें आज भी सामाजिक बहिष्कार का सामना है , उन्हें अधिक प्राथमिकता मिले ? और यदि क्रीमी लेयर लागू होता है , तो उसकी सीमा क्या होगी ? आय ? पेशा ? सामाजिक प्रतिष्ठा ? शिक्षा ? इन प्रश्नों के उत्तर ही आने वाले वर्षों की नीति का स्वरूप तय करेंगे ।

समाज में बढ़ती असमानता

क्या आरक्षण ने ‘भीतर की असमानता’ पैदा की है ? आलोचकों का कहना है कि आरक्षण ने SC/ST समुदाय के भीतर एक नई असमानता पैदा कर दी है— एक तरफ वे परिवार हैं जो पीढ़ियों से सरकारी नौकरियों और शिक्षा के आरक्षण का लाभ उठाते आए हैं , दूसरी तरफ वे समुदाय हैं जिन्हें आज तक कोई लाभ नहीं मिला । कई अध्ययन बताते हैं कि कई SC उप-जातियाँ शैक्षिक और आर्थिक रूप से काफी पीछे हैं , जबकि कुछ उप-जातियाँ आरक्षण का सबसे अधिक लाभ ले रही हैं । यह “भीतर की असमानता” आरक्षण प्रणाली के मूल उद्देश्य को कमजोर करती है ।

क्रीमी लेयर के विरोध में तर्क

कई सामाजिक वैज्ञानिक और दलित चिंतक इस अवधारणा के खिलाफ हैं । उनका कहना है सामाजिक भेदभाव आर्थिक उन्नति के बाद भी कायम रहता है । उच्च पदस्थ अधिकारी भी जातिगत अपमान और बहिष्कार झेलते रहते हैं । वर्ग आधारित पैमाना जातिगत अनुभवों को नहीं समझ सकता । क्रीमी लेयर लागू होने से SC/ST के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर भी असर पड़ सकता है । यह तर्क इस धारणा को चुनौती देता है कि आर्थिक उन्नति सामाजिक उन्नति के बराबर है ।

अगले वर्षों में बहस क्यों और तेज होगी ?

क्योंकि— एक ओर न्यायपालिका व्यापक विश्लेषण और “तार्किक समानता” पर ज़ोर दे रही है , दूसरी ओर केंद्र सरकार संविधान के मूल ढांचे की सुरक्षा की बात कर रही है , और राज्यों के सामने सामाजिक वास्तविकताओं के आधार पर अपनी-अपनी नीतियाँ बनाने का दबाव बढ़ रहा है । इसलिए यह विषय आने वाले वर्षों में सामाजिक नीति का केन्द्रीय विमर्श बनेगा ।

निष्कर्ष

समाधान क्या है ? इस जटिल बहस का कोई सरल समाधान नहीं है । परंतु नीति-निर्माताओं के सामने तीन मुख्य विकल्प हैं आरक्षण को पूरी तरह जाति-आधारित ही रखा जाए , जैसा कि मूल संविधान में है । SC/ST के भीतर वास्तविक वंचित उप-समुदायों को प्राथमिकता देने के लिए उप-वर्गीकरण बढ़ाया जाए । एक संतुलित मॉडल बनाया जाए , जिसमें जाति और सामाजिक-आर्थिक दोनों मानकों को शामिल किया जाए । इस बहस का सबसे बड़ा मूल्य यह है कि यह हमें याद दिलाती है— आरक्षण का उद्देश्य केवल प्रतिनिधित्व बढ़ाना नहीं , बल्कि वास्तविक सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है । आने वाले वर्षों में यही प्रश्न भारत की सामाजिक नीति की दिशा तय करेगा ।

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