“दुनिया का समाधान: भारत का एकात्म मानव दर्शन”

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पूनम शर्मा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है: आज की दुनिया जटिल संकटों से गुजर रही है, और समाधान केवल उसी दर्शन में है जो भारत की आत्मा की गहराई से जुड़ा है — भारत का एकात्म मानव दर्शन। उनका कहना है कि मानव और समाज की समग्रता, भारतीय संस्कृति की सार्वभौमिकता, और भारत की नैतिक भूमिका दुनिया के लिए एक नया मॉडल पेश कर सकते हैं।

यह विचार केवल संघ की विचारधारा नहीं है, बल्कि पंडित दीन दयाल उपाध्याय की विचारधारा – एकात्म मानववाद – का आधुनिक परिपाठी है। दीन दयाल जी ने 1960 के दशक में यह दर्शन प्रतिपादित किया था, जिसमें मानव जीवन को केवल आर्थिक या भौतिक दृष्टि से नहीं बल्कि शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के समेकित दृष्टिकोण से देखा गया है।

मोहन भागवत का संदेश और एकात्म मानववाद का मेल

समस्याओं का वास्तविक कारण — आत्म-पहचान की कमी भागवत ने कहा है कि मानव और राष्ट्र दोनों तब तक समस्याओं का सामना करते रहेंगे जब तक वे अपनी “सच्ची आत्म” को नहीं समझते।
यह विचार दीन दयाल के दर्शन से पूरी तरह मिलता है, क्योंकि एकात्म मानववाद में कहा गया है कि व्यक्ति को अपनी पूरी संरचना — शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक — समझने की ज़रूरत है।

भारत की सार्व-भौमिकता और वैश्विक उत्तरदायित्व

भागवत ने जोर दिया कि भारत का एकात्म मानव दर्शन सिर्फ देश के लिए नहीं है, बल्कि यह पूरे विश्व के कल्याण के लिए एक वैकल्पिक नैतिक पथ हो सकता है। उनकी यह सोच, जिसमें भारत को “विश्व गुरु” की भूमिका दी गई है, दीन दयाल के दर्शन — जिसमें भारत की संस्कृति और उसकी मानवीय चेतना को सार्व-विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत माना जाता है — के अनुरूप है। dीन दयाल जी ने यह माना था कि भारत का मॉडल केवल आर्थिक विकास पर आधारित नहीं होगा, बल्कि लोगों के पूर्ण मानवीय उत्थान पर आधारित होगा।

मध्यम मार्ग और संतुलन

भागवत ने कहा है कि संघ का जीवन “शुद्ध सात्त्विक प्रेम” और समाज-निष्ठा पर आधारित है, और यह अतिवाद से बचने के लिए संतुलन (मध्य मार्ग) पर चलने को अहमियत देता है। यह बिल्कुल दीन दयाल के पुरुषार्थ सिद्धांत जैसा है — जहाँ व्यक्ति के चार उद्देश्य (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) उनके जीवन में संतुलन और उदारता लाते हैं।

समावेश और एकता

भागवत ने यह बात दोहराई है कि भारत में विविधता के बावजूद एकता है — विभिन्न समुदाय, पंथ हो सकते हैं, लेकिन “हम एक ही पहचान वाले हैं।”
इसी प्रकार, दीन दयाल उपाध्याय की एकात्म मानववाद भी व्यक्ति और समाज, राष्ट्र और समष्टि — सभी को एक दूसरे से जुड़े हुए मानती है, न कि विशिष्ट हिस्सों में विभाजित।

अंत्योदय — सबसे अंतिम तक विकास

दीन दयाल उपाध्याय का एक और बहुत महत्वपूर्ण विचार अंत्योदय है: समाज का विकास तभी न्यायपूर्ण है जब अंतिम पंक्ति के व्यक्ति का उत्थान हो।
भागवत की सोच भी इस तरह की सहभागिता की ओर इशारा करती है — भारत की सामूहिक भूमिका सिर्फ ताकत या सत्ता में नहीं, बल्कि नैतिक नेतृत्व और मानवीय कल्याण में है।

आधुनिक चुनौतियों में प्रासंगिकता

भागवत ने यह माना है कि आज की दुनिया को वह “धर्मिक क्रांति” चाहिए जहाँ विकास केवल आर्थिक मापदंडों तक सीमित न हो।
यह दृष्टिकोण पूरी तरह दीन दयाल के एकात्म मानववाद दर्शन से मेल खाता है, जो पश्चिमी पूंजीवाद या समाजवाद की सीमाओं से परे एक स्वदेशी, सांस्कृतिक-मूल्य आधारित वैकल्पिक वर्णन प्रस्तुत करता है।

निष्कर्ष

मोहन भागवत का यह बड़ा बयान — कि “दुनिया अब सिर्फ भारत के एकात्म मानव दर्शन से ही समाधान पा सकती है” — केवल एक दार्शनिक वक्तव्य नहीं, बल्कि एक विचारधारात्मक प्रस्तावना है। जब वे दीन दयाल उपाध्याय की एकात्म मानववाद की उस विरासत को दोहराते हैं, तो वे यह संकेत दे रहे हैं कि भारत एक वैकल्पिक विश्व दृष्टि प्रस्तुत कर सकता है: एक ऐसी दृष्टि जिसमें व्यक्तित्व और समाज, आत्मा और संस्कृति, नैतिकता और प्रगति, सब एक साथ विकसित हों।

यह राह आसान नहीं है — क्योंकि यह सिर्फ आर्थिक शक्ति या राजनयिक दबदबे पर आधारित नहीं है — लेकिन अगर यह मार्ग चुना जाए, तो यह न सिर्फ भारत को बल्कि पूरे विश्व को नवीन दिशा, मूल्य-समृद्ध जीवन, और मानवता के असली कल्याण की ओर ले जा सकता है।

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