अशोक कुमार
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणाम राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के लिए भले ही ऐतिहासिक जीत लेकर आए हों, लेकिन विपक्षी महागठबंधन (MGB) के लिए यह हार सिर्फ सीटों का नुकसान नहीं, बल्कि एक गंभीर आत्मनिरीक्षण का विषय है। आंकड़ों की कठोर सच्चाई महागठबंधन के अंदरूनी कमजोरियों को उजागर करती है।
सत्ता गंवाने के बाद महागठबंधन के प्रदर्शन का विश्लेषण बताता है कि उसने अपनी पिछली जीती हुई 110 सीटों में से 84 सीटें NDA के हाथों गंवा दीं। यह लगभग 76% का अभूतपूर्व नुकसान है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि महागठबंधन उन सीटों में से 42% सीटें भी नहीं बचा पाया, जो पिछले तीन विधानसभा चुनावों से उसका पारंपरिक और अभेद्य गढ़ मानी जाती थीं। यह डेटा स्पष्ट करता है कि हार के पीछे चुनावी लहर से कहीं ज्यादा गठबंधन के भीतर की अस्थिरता और रणनीतिक गलतियां थीं।
महागठबंधन, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सबसे बड़ा दल था, ने इस चुनाव में रोजगार के वादे और एंटी-इनकम्बेंसी (सत्ता विरोधी लहर) को भुनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन, अंतिम परिणाम दिखाते हैं कि उसके ये बाहरी दांव आंतरिक विसंगतियों के सामने टिक नहीं पाए। आइए, उन 5 अंदरूनी कारकों का विस्तार से विश्लेषण करते हैं, जिन्होंने मिलकर महागठबंधन की हार की पटकथा लिखी।
पहला अंदरूनी फैक्टर: नेतृत्वहीनता और समन्वय का संकट
महागठबंधन की हार का सबसे बड़ा कारण उसके नेतृत्व और समन्वय का ढाँचा रहा, जो पूरे चुनाव प्रचार के दौरान अस्थिर बना रहा।
सीट बंटवारे में देरी: जहां NDA ने समय रहते अपने पांचों सहयोगी दलों के बीच सीट बंटवारे को अंतिम रूप दे दिया था, वहीं महागठबंधन में पहले चरण के नामांकन की प्रक्रिया पूरी होने तक सीटों को लेकर खींचतान जारी रही। कांग्रेस और RJD के बीच सीटों की संख्या, और खासकर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर विरोधाभास ने जनता के बीच यह संदेश दिया कि गठबंधन ही आपस में असहज है।
रणनीति का अभाव: सीटों की खींचतान में उलझे रहने के कारण महागठबंधन के नेता एक ठोस समन्वित रणनीति बनाने में विफल रहे। जहाँ NDA ने ‘डबल इंजन’ और ‘जंगलराज बनाम सुशासन’ का एक स्पष्ट, एकीकृत नैरेटिव पेश किया, वहीं महागठबंधन के विभिन्न घटक दल (RJD, कांग्रेस, लेफ्ट) अपने-अपने मुद्दों पर लड़ते रहे। तेजस्वी यादव का जोर केवल नौकरी पर था, जबकि कांग्रेस अपनी अलग गारंटी दे रही थी। इस रणनीतिक बिखराव ने मतदाताओं को भ्रमित किया।
दूसरा अंदरूनी फैक्टर: ‘कमजोर कड़ी’ बनी कांग्रेस
महागठबंधन में शामिल कांग्रेस पार्टी इस पूरे चुनावी संघर्ष में सबसे कमजोर कड़ी बनकर उभरी।
खराब स्ट्राइक रेट का डर: कांग्रेस ने पिछली बार 70 सीटों पर लड़कर केवल 19 सीटें जीती थीं। इस चुनाव में भी, उसकी मांग उसकी वास्तविक चुनावी क्षमता से कहीं अधिक थी। 61 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस का प्रदर्शन रुझानों में बेहद निराशाजनक रहा, वह महज 6-7 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई।
वोट ट्रांसफर में विफलता: कांग्रेस न केवल NDA के गढ़ों में मुकाबला करने में असफल रही, बल्कि वह RJD के पारंपरिक वोट बैंक (MY समीकरण) का वोट ट्रांसफर भी अपनी सीटों पर सुनिश्चित नहीं कर पाई। कांग्रेस के कई उम्मीदवारों को जनता न पहचानती थी, न स्वीकार कर पाई। गठबंधन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद, कांग्रेस ने महागठबंधन के कुल प्रदर्शन को नीचे खींच दिया, जिससे जीत के लिए ज़रूरी बहुमत का गणित बिगड़ गया।
तीसरा अंदरूनी फैक्टर: ‘फ्रेंडली फाइट’ ने किया भारी नुकसान
महागठबंधन के सहयोगी दलों के बीच हुई आपसी लड़ाई (फ्रेंडली फाइट) ने उसकी एकजुटता को सतह पर लाकर ध्वस्त कर दिया।
10-11 सीटों पर सीधा टकराव: लगभग 10 से 11 महत्वपूर्ण सीटों पर कांग्रेस, RJD, और लेफ्ट पार्टियों ने एक-दूसरे के खिलाफ ही उम्मीदवार उतार दिए। उदाहरण के लिए, कुछ सीटों पर RJD ने कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ में अपना प्रत्याशी उतारा, तो कुछ पर वाम दलों के साथ कांग्रेस का सीधा मुकाबला रहा।
गृहयुद्ध का नैरेटिव: NDA के नेताओं ने इस आपसी सिर-फुटव्वल को ‘महागठबंधन का गृहयुद्ध’ करार दिया। इस अंदरूनी संघर्ष ने जनता के बीच यह संदेश मजबूत किया कि अगर ये दल चुनाव से पहले सीटें नहीं बाँट पा रहे हैं, तो वे राज्य को क्या चलाएँगे? नतीजतन, कई सीटों पर वोटों का विभाजन हुआ, जिसने NDA उम्मीदवारों की जीत को आसान बना दिया।
चौथा अंदरूनी फैक्टर: टिकट वितरण की त्रुटियां और छवि का बोझ
RJD के टिकट वितरण की रणनीति और उसके नेतृत्व पर हावी रही पुरानी ‘जंगलराज’ की छवि महागठबंधन की हार का एक बड़ा कारण बनी।
यादव केंद्रित टिकट वितरण: RJD ने अपने कोटे की सीटों में से बड़ी संख्या में यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया, जिससे यह आशंका बलवती हो गई कि RJD फिर से ‘यादव राज’ की वापसी चाहती है। इस छवि ने गैर-यादव अति-पिछड़े वर्गों (EBCs), जो निर्णायक वोट बैंक हैं, और अगड़ी जातियों को NDA के पक्ष में लामबंद होने का मौका दे दिया।
‘जंगलराज’ का पुनरुत्थान: प्रधानमंत्री मोदी से लेकर नीतीश कुमार तक, NDA ने इस चुनाव में बार-बार ‘जंगलराज’ शब्द का प्रयोग किया। यह नकारात्मक प्रचार तेजस्वी यादव के लिए एक भारी राजनीतिक बोझ बन गया। भले ही तेजस्वी युवाओं को रोजगार का सपना दिखा रहे थे, लेकिन मतदाताओं के एक बड़े वर्ग (विशेषकर महिला और अगड़ी जाति के मतदाता) के मन में 1990 के दशक की कानून-व्यवस्था की कमजोरियों का डर बना रहा, जिसने उन्हें NDA को चुनने के लिए प्रेरित किया।
पांचवां अंदरूनी फैक्टर: कमजोर बूथ प्रबंधन और विद्रोह
किसी भी बड़े गठबंधन को जीतने के लिए मजबूत संगठनात्मक ढाँचे और प्रभावी बूथ प्रबंधन की आवश्यकता होती है, जो महागठबंधन में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित था।
जमीनी स्तर पर कमजोरी: कांग्रेस नेता निखिल कुमार सहित कई आंतरिक विश्लेषकों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि पार्टी की जमीनी तैयारी अपर्याप्त थी। महागठबंधन के पास NDA के ‘पन्ना प्रमुख’ जैसे माइक्रो-मैनेजमेंट मॉडल का कोई मुकाबला नहीं था। कई पुराने और मजबूत वोट बैंक इलाकों में भी बूथ प्रबंधन कमजोर पड़ा।
बागियों का बढ़ता असर: टिकट कटने या मनपसंद सीट न मिलने के कारण कई नाराज नेताओं ने गठबंधन के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया। जहाँ उम्मीदवार बदले गए, वहाँ स्थानीय असंतोष खुलकर सामने आया। महागठबंधन यह सुनिश्चित करने में विफल रहा कि असंतुष्ट नेताओं के समर्थकों का वोट भी गठबंधन के आधिकारिक उम्मीदवार को ट्रांसफर हो जाए। इस आंतरिक विद्रोह ने गठबंधन की जीत की संभावनाओं को कम कर दिया।
निष्कर्ष: महागठबंधन के लिए भविष्य की चुनौतियाँ
महागठबंधन की हार एक बहु-आयामी विफलता है, जो केवल चुनावी मुद्दों पर नहीं, बल्कि संगठनात्मक अनुशासन, नेतृत्व समन्वय और दूरदर्शिता में हुई चूक को दर्शाती है। 110 में से 84 सीटें गंवाना यह बताता है कि RJD और उसके सहयोगी दल केवल एक अस्थिर गठबंधन थे, जो सत्ता की लड़ाई के लिए तैयार नहीं थे।
भविष्य में, महागठबंधन को न केवल अपने 5 अंदरूनी कारकों को ठीक करना होगा, बल्कि कांग्रेस जैसी ‘कमजोर कड़ी’ के साथ अपने संबंधों को फिर से परिभाषित करना होगा। जब तक महागठबंधन एकजुट, समन्वित रणनीति के साथ मैदान में नहीं उतरता और अपनी पुरानी नकारात्मक छवि से पूरी तरह बाहर नहीं निकलता, तब तक NDA को चुनौती देना उसके लिए लगभग असंभव बना रहेगा। यह हार विपक्ष के लिए एक सबक है कि केवल सत्ता विरोधी लहर पर निर्भर रहने से चुनावी सफलता नहीं मिलती, बल्कि उसे मजबूत वैकल्पिक ढाँचा और विस्तृत संगठनात्मक नेटवर्क भी प्रदान करना होता है।