क्या मीडिया चेहरा -चरित्र और चाल जन हित में बदलेगा ??

फर्जी खबरों की बाढ़ के बीच फिर उठा सवाल — भारत में एक स्वतंत्र राष्ट्रीय मीडिया परिषद कब बनेगी?

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  • धर्मेंद्र के निधन की झूठी खबर ने मीडिया के सत्यापन तंत्र पर गंभीर सवाल खड़े किए।
  • बड़े चैनलों ने भी बिना पुष्टि के वायरल पोस्ट को “ब्रेकिंग न्यूज़” की तरह प्रसारित किया।
  • दो दशकों से सरकारें स्वतंत्र मीडिया परिषद की मांग को टालती रही हैं।
  • जनता, पत्रकारिता और सार्वजनिक भरोसा तीनों इस अव्यवस्था की सबसे बड़ी कीमत चुका रहे हैं।

डॉ. कुमार राकेश
नई दिल्ली, 13 नवंबर: इंटरनेट की दुनिया में अफ़वाहें अकसर एक फुसफुसाहट से शुरू होकर तूफ़ान बन जाती हैं। यही हुआ “धर्मेंद्र जी के निधन” वाली ख़बर के साथ। X और व्हाट्सऐप पर चल रही अपुष्ट पोस्टों को कुछ ही मिनट में छोटे पोर्टल्स ने उठा लिया, फिर तथाकथित बड़े नेशनल चैनलों ने भी बिना पुष्टि के वही “ब्रेकिंग न्यूज़” चला दी।

जब तक धर्मेंद्र जी की पत्नी और सांसद हेमा मालिनी तथा बेटी ईशा देओल ने आकर स्पष्ट किया कि धर्मेंद्र पूर्णतः स्वस्थ हैं और 12 नवंबर की सुबह ही मुंबई अस्पताल से छुट्टी लेकर घर लौट चुके हैं, तब तक देशभर में फैल चुकी गलत जानकारी अपना असर दिखा चुकी थी।
यह सिर्फ़ एक गलत हेडलाइन की कहानी नहीं है, यह पूरे उस सिस्टम का आईना है जो ऐसी गलतियों को पनपने देता है।
आख़िर सत्य की पुष्टि करने वाले स्वयं कितने विश्वसनीय हैं?

भारत में मीडिया जवाबदेही की अधूरी इमारत

दशकों से भारत में मीडिया जवाबदेही को लेकर एक अधूरी संरचना मौजूद है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया सिर्फ़ प्रिंट मीडिया तक सीमित है। टीवी और डिजिटल मीडिया स्वयं-संयमन के नाम पर चलते हैं, एक ऐसी व्यवस्था जो सुनने में तो आदर्श लगती है, पर असल में अक्सर बुरी तरह विफल होती है।

धर्मेंद्र वाली घटना में भी यही हुआ,
पहले दिखाने की होड़ ने सही दिखाने की जिम्मेदारी को कुचल दिया।

2003 की वो बातचीत, और दो दशकों की चुप्पी

मुझे 2003 की वह मुलाकात आज भी याद है, जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद से कई मीडिया मुद्दों पर चर्चा हुई थी। बातचीत के अंत में मैंने उनसे सीधे पूछा:

“भारत में एक स्वतंत्र मीडिया काउंसिल क्यों नहीं हो सकती, जो प्रिंट, टीवी और डिजिटल तीनों पर निगरानी रखे?”

वह हल्की मुस्कान के साथ बोले,
“कैसे संभव है? क्या आप चाहते हैं कि मीडिया हमारे खिलाफ़ दुश्मन बन जाए?”
उनकी नीयत समझते ही मैं निरव‌ हो गई।

आज 20 साल बाद भी जवाब वही है,
हर राजनीतिक शासन इस मुद्दे से बचता रहा है।

ना UPA सरकारों ने इस पर ठोस कदम उठाए,
ना BJP/NDA सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया।

मंत्री बदलते गए  जयपाल रेड्डी, अंबिका सोनी, प्रकाश जावड़ेकर, स्मृति ईरानी से लेकर अनुराग ठाकुर तक
पर सूचना की पुष्टि और प्रसारण की जवाबदेही पर कोई ठोस नीति नहीं बनी।

क्यों?
क्योंकि एक सशक्त और स्वतंत्र मीडिया काउंसिल न सिर्फ़ मीडिया बल्कि सरकारों से भी जवाबदेही मांगेगी।
और यह हर पार्टी के लिए असुविधाजनक है।

मूल्य कौन चुका रहा है?  जनता और पत्रकारिता दोनों

हर बार जब कोई फर्ज़ी खबर वायरल होती है,
हर बार जब किसी परिवार को “झूठी मृत्यु” का खंडन करना पड़ता है,
हर बार जब पत्रकारिता की विश्वसनीयता थोड़ी और टूटती है,
तब इस शून्यता की कीमत देश चुका रहा होता है।

धर्मेंद्र जी का मामला कोई मामूली इंटरनेट अफ़वाह नहीं है।
यह अंतिम चेतावनी माननी चाहिए।

यह पहली बार नहीं — 2024 में आडवाणी जी के साथ भी यही हुआ था

जुलाई 2024 में भी ऐसी ही अफ़वाह फैली थी कि पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का निधन हो गया है।
कुछ ही मिनटों में हैशटैग ट्रेंड करने लगे,
चैनलों ने खबर उठा ली,
लोग श्रद्धांजलि देने लगे।

हमने तब भी सबसे पहले यह खबर फेक साबित की और चैनलों की गैर-जिम्मेदारी की निंदा की थी।
पर उस घटना से भी कोई सबक नहीं लिया गया।

अब जरूरी है — राष्ट्रीय मीडिया परिषद (National Media Council)

भारत को ऐसी व्यवस्था की जरूरत है, जहाँ गति नहीं, सत्य पहली प्राथमिकता हो।
जहाँ:

  • खबर प्रसारित होने से पहले सत्यापन अनिवार्य हो
  • फर्जी रिपोर्टिंग पर कार्रवाई हो
  • मीडिया और राजनीति के रिश्तों का स्पष्ट परिभाषित ढांचा हो
  • जनता का भरोसा मजबूत हो

मैं मानता हूँ कि वर्तमान मोदी सरकार को इस पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए
एक राष्ट्रीय मीडिया परिषद (National Media Council) की स्थापना करके
जो पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिकों की निजता तीनों की रक्षा करे।

35 वर्षों का अनुभव, और एक स्पष्ट निष्कर्ष

35 सालों तक मीडिया और राजनीति के बीच की खाइयों, टकरावों और स्वार्थों को करीब से देखने के बाद मेरा निष्कर्ष साफ़ है:

मीडिया का दुरुपयोग हमेशा राजनीति ने अपने हितों के लिए किया है, जनता के हित के लिए नहीं।

इसलिए अब समय है कि
मीडिया और राजनीति के रिश्तों को परिभाषित किया जाए  जनता के हित में, न कि सत्ता के हित में।

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