पूनम शर्मा
क्या यह सिर्फ़ एक संयोग है , या इसके पीछे कोई सोची-समझी साज़िश छिपी है ? अख़बार के आम पाठक को इसका जवाब शायद कभी न मिले , लेकिन “न्यूज़ बनाने वाले” लोगों को इसकी जड़ें अच्छी तरह पता हैं । कोलकाता से प्रकाशित दैनिक बंगला के पहले पेज की तस्वीर देखिए । यह अख़बार वामपंथी विचारधारा का प्रमुख मुखपत्र माना जाता है । वैसे ही बंगाल के हर वर्ग का अपना अख़बार है — कोई कांग्रेस समर्थक जो खुद को “बंगालियों का रक्षक” कहता है , तो कोई हल्का-सा राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का स्वाद लिए “स्वदेशी” अख़बार भी है । पर दिलचस्प बात यह है कि इन सबके पहले पन्ने पर आज एक जैसी तस्वीर छपी है । ख़बर है — दिल्ली का बड़ा बम धमाका ।
बैनर हेडलाइन — दहशत , मौतें , सुरक्षा सवालों में । लेकिन फोटो ? फोटो में जो दिखाया गया है , वह असली घटना का चेहरा नहीं , बल्कि नैरेटिव का चेहरा है । सवाल उठता है — फोटो क्यों ऐसा ? एक पाठक जब उस फोटो को देखता है , तो उसके मन में अनजाने में एक कहानी बनती है । वह समझता है कि शायद धमाके का कारण , दोषी या दिशा कुछ और है । यह वही “इमेज नैरेटिव” है , जो दशकों से वामपंथी और कांग्रेस समर्थक मीडिया करती आई है — वास्तविक घटना से ध्यान हटाकर वैचारिक कहानी गढ़ना । फोटो का चयन संयोग नहीं होता । यह एक संपादकीय हथियार होता है ।
दोष की दिशा
दिल्ली ब्लास्ट जैसी गंभीर आतंकी घटना के बीच जब अख़बार देश को एकजुट करने की जगह “दोष की दिशा” बदलने लगें — तो समझिए कि पत्रकारिता नहीं , प्रोपेगेंडा चल रहा है । यह नैरेटिव कौन बनाता है ? भारत में पिछले चार दशकों से “नैरेटिव जर्नलिज़्म” का एक गुप्त इकोसिस्टम काम करता रहा है — जिसमें मीडिया , थिंक टैंक , और राजनीतिक लॉबी का गहरा गठजोड़ है । यह इकोसिस्टम तय करता है कि किसी भी घटना को जनता के सामने कैसे प्रस्तुत करना है । अगर कोई आतंकवादी मुसलमान है — तो हेडलाइन होगी “युवक संदिग्ध” , ताकि धार्मिक पहचान धुंधली हो जाए । अगर सुरक्षा एजेंसी कार्रवाई करती है — तो लिखा जाएगा “मुस्लिम मोहल्ले में छापा” , ताकि पीड़ित की छवि बदल जाए । और अगर कोई ब्लास्ट होता है — तो उसके पीछे की साजिश को “सामाजिक तनाव” या “राजनीतिक असंतोष” बताकर असली आतंकियों को छुपाया जाता है । यही तरीका आज भी अपनाया गया — दिल्ली ब्लास्ट की रिपोर्ट में । तस्वीरें जो ‘कहानी’ बनाती हैं आप देखेंगे — पहले पन्ने पर वही फोटो क्यों लगाई गई जो संवेदना जगाए , सवाल नहीं । फोटो में न तो ब्लास्ट साइट है , न पुलिस जाँच , न घायल नागरिक । बल्कि ऐसी छवि है जो “राजनीतिक संदेश” देती है — कि यह घटना किसी विशेष समुदाय की प्रतिक्रिया है , या किसी सरकार की नाकामी का नतीजा । यही है फोटो नैरेटिव की कला — घटना वही , पर कहानी बदल जाती है । इस कला में निपुण है भारतीय वामपंथी पत्रकारिता , जो हर राष्ट्रीय संकट को “विचारधारात्मक हथियार” में बदल देती है ।
असली खतरा
जनता का मानसिक नियंत्रण इस तरह की पत्रकारिता का असर धीरे-धीरे गहरा होता है । जनता असल घटना भूलकर उस कहानी को सच मानने लगती है , जो फोटो या हेडलाइन से गढ़ी गई होती है । यह “पब्लिक परसेप्शन” का हाइजैक है । आज जब आतंकवाद , कट्टरपंथ और विदेशी फंडिंग भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बने हुए हैं , तब मीडिया का ऐसा खेल बेहद खतरनाक है । क्योंकि यह सिर्फ खबर नहीं छापता , बल्कि राष्ट्रीय चेतना को भ्रमित करता है । वाम-‘कॉंग्रेस’ मीडिया का पुराना फार्मूला ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है । 1980 के दशक में पंजाब आतंकवाद , 1990 में कश्मीर , 2008 में मुंबई हमले — हर जगह यही पैटर्न दिखा । जहाँ असली अपराधी को बचाने के लिए या “संवेदना की राजनीति” करने के लिए मीडिया ने मोड़ दी कहानी । अब वही तरीका दिल्ली ब्लास्ट में भी दिख रहा है — ताकि जनता यह न पूछे कि कौन था ज़िम्मेदार ? देश के लिए यह “सस्ता खेल” नहीं , एक खतरा है पत्रकारिता का काम सवाल पूछना है,पर आज का मीडिया सवाल नहीं, संकेत देता है। यह संकेत तय करते हैं कि कौन “दोषी” दिखेगा , कौन “पीड़ित” लगेगा , और किसे “संदेह” का लाभ मिलेगा । यह बहुत सस्ता तरीका है — लेकिन इसका प्रभाव बहुत गहरा है । देश की सामूहिक सोच को बदलने का यही सबसे आसान रास्ता है । जब खबर की तस्वीर ही सच का रूप तय करे,तब लोकतंत्र कमजोर हो जाता है। ऐसी पत्रकारिता सिर्फ विचारधारा नहीं फैलाती — यह देश की सुरक्षा के ताने-बाने को तोड़ती है ।
निष्कर्ष
दिल्ली ब्लास्ट सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं था — यह भारत की मीडिया नैतिकता की परीक्षा भी थी । दुर्भाग्य से , कई अख़बार इस परीक्षा में फिर असफल हुए । वामपंथी और कांग्रेस समर्थक पत्रकारिता ने एक बार फिर दिखाया कि उनके लिए देश से ज़्यादा जरूरी है उनका नैरेटिव । लेकिन जनता अब जाग चुकी है । वह समझती है कि जब फोटो बदल जाती है , तो कहानी भी बदल जाती है — और जब कहानी बदल जाती है , तो सच दब जाता है ।