पूनम शर्मा
4 नवम्बर 2025 को वेटिकन ने नया धार्मिक दस्तावेज़ जारी किया—“Mater Populi Fidelis”, जिसका अर्थ है “विश्वासियों की माता”। इसे जारी किया है Dicastery for the Doctrine of the Faith (DDF) ने—वह संस्था जो कभी Roman Inquisition के नाम से जानी जाती थी। सतही तौर पर यह पत्र मरियम (Virgin Mary) की भक्ति को गहराई देने का प्रयास लगता है, पर असल में यह दस्तावेज़ स्त्री-दैवत्व की सीमाएँ तय करने का एक नया अध्याय है।
वेटिकन ने साफ कर दिया है कि मरियम को “Co-Redemptrix” (सह-उद्धारक) या “Mediatrix of All Graces” (सभी कृपाओं की मध्यस्थ) जैसे शीर्षक नहीं दिए जा सकते। कारण बताया गया कि ये “भ्रम” फैला सकते हैं। लेकिन असली चिंता यह नहीं है कि लोग भ्रमित होंगे, बल्कि यह कि मरियम को स्वतंत्र शक्ति के रूप में देखने से ईसाई धर्म की पुरुष-प्रधान ईश्वरीय संरचना डगमगा जाएगी।
मरियम: देवी से दासी तक
ईसाई धर्म में मरियम की छवि हमेशा “सेविका” या “माता” की रही है, पर देवी नहीं। यह सीमांकन आकस्मिक नहीं है, बल्कि एक योजनाबद्ध धार्मिक राजनीति है। इतिहास बताता है कि जब ईसाई धर्म फैला, तब यूरोप और मिस्र में देवी-पूजा की परंपराएँ गहराई तक थीं। Isis, Cybele, Demeter जैसी देवियाँ सृष्टि, करुणा और शक्ति की प्रतीक थीं। जब चर्च ने इन परंपराओं को अपने ढांचे में समाहित किया, तो देवी को नहीं, “माता” को अपनाया गया—वह माता जो आज्ञाकारी है, शक्ति नहीं दिखाती, केवल सहती है।
मिस्र की देवी Isis अपने पुत्र Horus को गोद में लेकर दूध पिलाती दिखाई देती हैं। बाद में वही छवि मरियम और शिशु यीशु के रूप में अपनाई गई—पर जहाँ Isis सृष्टिकर्त्री थीं, वहीं मरियम को “ईश्वर की दासी” बना दिया गया। यह है धार्मिक सत्ता की रणनीति—देवी की शक्ति को मातृत्व में सीमित कर देना।
स्त्री शक्ति से संस्थागत भय
वेटिकन की समस्या यह नहीं है कि लोग मरियम की पूजा करते हैं; समस्या यह है कि लोग मरियम को ईश्वर के बराबर देखने लगते हैं। यही कारण है कि जब भी मरियम की “दैवी शक्ति” पर ज़ोर बढ़ता है, चर्च पीछे हट जाता है।
धर्मशास्त्र में इसे “गाइनोफोबिया”—स्त्री शक्ति का भय—कहा गया है। पुरुष त्रिमूर्ति (पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा) में कोई स्थान नहीं है उस देवी का, जो स्वतंत्र रूप से उद्धार कर सके। मरियम को हमेशा उस सीमा में बाँधा गया है जहाँ वह “करुणामयी” तो हैं, पर “सर्वशक्तिमान” नहीं।
सिमोन द बोउवार ने लिखा था कि “मरियम की पूजा पुरुष सत्ता की सबसे बड़ी जीत है, क्योंकि यहाँ स्त्री को दासी बनाकर महिमामंडित किया गया है।” यानी मरियम की भक्ति जितनी गहराई से बढ़ती है, उतना ही संस्थागत नियंत्रण भी बढ़ता है।
श्रद्धा का या नियंत्रण का दस्तावेज़ ?
Mater Populi Fidelis का उद्देश्य “भक्ति को निर्देशित” करना बताया गया है, पर वस्तुतः यह एक धार्मिक नियंत्रण-पत्र है। चर्च चाहता है कि मरियम पर श्रद्धा रखो, पर श्रद्धा की परिभाषा वही तय करेगा। यह उसी लंबे प्रयास का हिस्सा है जिसमें मरियम को देवी नहीं, एक “प्रार्थना का माध्यम” बनाकर रखा गया।
1854 में Immaculate Conception और 1950 में Assumption of Mary के सिद्धांतों के बावजूद चर्च हमेशा सावधान रहा—कि कहीं मरियम “सह-उद्धारक” के रूप में ईसाई धर्मशास्त्र की त्रिमूर्ति को चुनौती न दे दें।
भारतीय दृष्टि: देवी को सीमित नहीं किया जा सकता
भारतीय परंपरा में देवी को कभी सीमित नहीं किया गया। हमारे यहाँ शक्ति स्वयं परम सत्ता है—महाशक्ति, आदिशक्ति, जो सृष्टि की जननी, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। यहाँ स्त्री “सहयोगी” नहीं, “स्वामी” है।
पार्वती, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, काली, मणसा देवी—सभी में शक्ति और करुणा का अद्वितीय संतुलन है। यहाँ ईश्वर “वह” नहीं, “वह भी” है।
श्री अरविंद ने सावित्री में इस ईसाई विरोधाभास को गहराई से दिखाया। उन्होंने कहा—“दुःख सहने वाली मरियम सत्य का आंशिक रूप है, पूर्ण नहीं।” करुणा बिना शक्ति के अपूर्ण है, और शक्ति बिना करुणा के कठोर। हिंदू दर्शन कहता है—देवी दोनों है: करुणा और शक्ति का संगम।
निष्कर्ष: देवी का भय, धर्म की अधूरी दृष्टि
वेटिकन की यह नई घोषणा इस बात का प्रतीक है कि चर्च अब भी स्त्री ईश्वर की स्वतंत्र सत्ता से भयभीत है। मरियम को पूजा जा सकता है, पर देवी नहीं कहा जा सकता। उन्हें आँसू बहाने की अनुमति है, पर सृष्टि रचने की नहीं। यह एक ऐसे धर्म की व्यथा है जो ईश्वर की आधी तस्वीर ही देखना चाहता है—पुरुष ईश्वर की।
भारतीय दृष्टि में यह अधूरापन साफ दिखाई देता है। जब तक दैवी स्त्री को समान रूप में स्वीकार नहीं किया जाता, तब तक ईश्वर का चित्र अधूरा रहेगा।
वेटिकन की “Mater Populi Fidelis” उसी भय का प्रमाण है—उस देवी का भय, जो अगर माँ ली गई, तो ईश्वर की सत्ता को भी बराबर बाँट लेगी।