मुस्लिम दूसरी शादी: हाई कोर्ट का आदेश, पहली पत्नी को बताना अनिवार्य
केरल हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: 'संविधान पहले है, धर्म बाद में', पंजीकरण से पहले पहली पत्नी को सुनना ज़रूरी
- अहम फैसला: केरल हाई कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पुरुष पहली पत्नी को सुने बिना दूसरी शादी का पंजीकरण नहीं करा सकते।
- संविधान सर्वोपरि: कोर्ट ने कहा कि पंजीकरण के मामले में ‘धर्म गौण है और संवैधानिक अधिकार (लैंगिक समानता) सर्वोच्च हैं।’
- रजिस्ट्रार का निर्देश: अगर पहली पत्नी दूसरी शादी पर आपत्ति करती है, तो रजिस्ट्रार विवाह का पंजीकरण नहीं करेंगे और पक्षकारों को सिविल कोर्ट भेजेंगे।
समग्र समाचार सेवा
कोच्चि (केरल), 06 नवंबर: केरल हाई कोर्ट ने हाल ही में मुस्लिम पर्सनल लॉ और संवैधानिक अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करते हुए एक ऐतिहासिक और प्रगतिशील फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कोई भी मुस्लिम पुरुष अपनी पहली पत्नी के साथ विवाह कायम रहते हुए, उसे सूचित किए बिना या उसकी बात सुने बिना, अपनी दूसरी शादी का पंजीकरण (Registration) नहीं करा सकता है।
न्यायमूर्ति पी. वी. कुन्हिकृष्णन की एकल पीठ ने ‘केरल विवाह पंजीकरण (सामान्य) नियम, 2008’ का हवाला देते हुए यह व्यवस्था दी है। कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि ‘धर्म गौण है और संवैधानिक अधिकार सर्वोपरि हैं।’ यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के समानता और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को मज़बूती प्रदान करता है।
1. हाई कोर्ट ने क्यों खारिज की याचिका?
यह अहम फैसला एक मुस्लिम व्यक्ति और उसकी दूसरी पत्नी द्वारा दायर याचिका पर आया, जिसमें उन्होंने स्थानीय निकाय द्वारा उनकी शादी का पंजीकरण न करने के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी।
याचिका का आधार: याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ एक पुरुष को एक साथ चार पत्नियाँ रखने की अनुमति देता है, इसलिए रजिस्ट्रार को उनकी दूसरी शादी का पंजीकरण करना ही चाहिए।
कोर्ट का रुख: हाई कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने अपनी पहली पत्नी को मामले में पक्षकार (Party) नहीं बनाया था, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
बेंच की टिप्पणी: न्यायमूर्ति कुन्हिकृष्णन ने टिप्पणी की कि वह यह अदालत पहली पत्नी की भावनाओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती जब उसका पति देश के कानून के तहत दूसरी शादी का पंजीकरण करा रहा हो।
2. ‘धर्म गौण, संवैधानिक अधिकार सर्वोच्च’
कोर्ट ने अपने फैसले में लैंगिक समानता (Gender Equality) और निष्पक्षता पर ज़ोर दिया।
प्राकृतिक न्याय: जस्टिस कुन्हिकृष्णन ने स्पष्ट किया कि यद्यपि मुस्लिम पर्सनल लॉ कुछ परिस्थितियों में दूसरी शादी की अनुमति देता है, लेकिन जब विवाह का पंजीकरण देश के कानून यानी केरल विवाह पंजीकरण (सामान्य) नियम, 2008 के तहत होता है, तो संवैधानिक अधिकार लागू होंगे।
संवैधानिक अधिकार: कोर्ट ने कहा, “इन मामलों में धर्म गौण है और संवैधानिक अधिकार सर्वोच्च हैं।” उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ नहीं हैं और लैंगिक समानता हर नागरिक का मूलभूत संवैधानिक अधिकार है।
कुरान का संदर्भ: अदालत ने यह भी कहा कि उन्हें नहीं लगता कि कुरान या मुस्लिम कानून भी पहली पत्नी के जीवित रहते और वैवाहिक संबंध कायम रहते, उसकी जानकारी के बिना किसी अन्य महिला से शादी या विवाहेत्तर संबंध की अनुमति देते हैं।
3. रजिस्ट्रार के लिए स्पष्ट निर्देश
हाई कोर्ट ने विवाह पंजीकरण अधिकारियों को निर्देश दिए कि जब भी कोई मुस्लिम पुरुष अपनी पहली शादी के रहते दूसरी शादी के पंजीकरण के लिए आवेदन करे, तो:
पहली पत्नी को नोटिस: रजिस्ट्रार को अनिवार्य रूप से पुरुष की पहली पत्नी को नोटिस जारी करना चाहिए।
सुनवाई का अवसर: पहली पत्नी को अपनी बात कहने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए।
आपत्ति पर कार्रवाई: यदि पहली पत्नी पंजीकरण पर आपत्ति जताती है और दूसरी शादी को अमान्य बताती है, तो रजिस्ट्रार को विवाह का पंजीकरण करने से बचना चाहिए।
सिविल कोर्ट भेजें: आपत्ति की स्थिति में, पक्षकारों को अपनी दूसरी शादी की वैधता स्थापित करने के लिए सक्षम सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की सलाह दी जानी चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह नियम तब लागू नहीं होगा, जब मुस्लिम पुरुष ने अपनी पहली पत्नी को तलाक देने के बाद दूसरी शादी की हो। यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है, क्योंकि कोर्ट ने माना कि 99.99% मुस्लिम महिलाएँ अपने पति की दूसरी शादी के खिलाफ होंगी।