बिहार 2025 टिकट बंटवारा: जातीय रणनीति का पर्दाफाश – प्रतिनिधित्व या समीकरण?

भाजपा और राजद ने अपने पारंपरिक जातीय समीकरणों को बरकरार रखा, समावेशिता के बजाय जाति आधारित राजनीति पर दोबारा भरोसा।

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  • दोनों प्रमुख दल टिकट बंटवारे में जातीय संतुलन से आगे बढ़ने में असफल रहे।
  • बिहार की 36% EBC आबादी को लेकर कोई ठोस पहल नहीं दिखी।
  • भाजपा का ऊपरी जातियों पर जोर और राजद का यादव-मुस्लिम कोर पर टिके रहना जोखिम भरा।
  • 2025 की राजनीति में प्रतिनिधित्व की सच्ची चुनौती,  वास्तविक जनसंख्या के अनुसार भागीदारी।

डॉ.कुमार राकेश
पटना | 5 नवम्बर: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के टिकट बंटवारे ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा और राजद दोनों अपने पारंपरिक जातीय समीकरणों में ही उलझे हुए हैं। दोनों दलों के लिए यह सिर्फ सीटों का मामला नहीं है, यह मतदाताओं के लिए एक संकेत है कि आपकी पहचान अब भी सबसे महत्वपूर्ण है, और पार्टियां अब भी मानती हैं कि जीत जातीय आधार पर प्रतिनिधि चुनने से ही संभव है।

राजद के लिए इसका अर्थ है अपने ‘MY’ (मुस्लिम-यादव) कोर वोट बैंक को बनाए रखना, जबकि भाजपा के लिए इसका मतलब है ऊपरी जातियों के प्रभाव को स्थिर रखना। लेकिन बिहार की वास्तविक सामाजिक संरचना, जहाँ 36% से अधिक आबादी अति पिछड़े वर्ग (EBC) की है , इस पारंपरिक राजनीति से आगे बढ़ने की मांग कर रही है। इन वर्गों की अनदेखी किसी भी दल की व्यापक वैधता पर प्रश्नचिह्न लगा सकती है।

वास्तविक नवीकरण का अवसर खो गया
बिहार के प्रमुख दल अपने पुराने पैटर्न को नए नामों में दोहरा रहे हैं। भाजपा का ऊपरी जातियों पर अत्यधिक जोर तब जोखिम भरा दिखता है जब युवाओं और पिछड़े वर्गों की आकांक्षाएँ तेजी से बदल रही हैं। वहीं राजद का यादवों पर अत्यधिक निर्भर रहना उसकी पारंपरिक शक्ति को तो बनाए रख सकता है, लेकिन इसके चलते उसका व्यापक सामाजिक गठबंधन कमजोर होता जा रहा है।

दोनों दलों ने दीर्घकालिक सुधार की बजाय अल्पकालिक राजनीतिक गणना को प्राथमिकता दी है। टिकट वितरण में नवाचार और समावेशिता की जगह भय और परंपरावाद दिखाई देता है। यह बिहार के लिए एक मिस्ड अपॉर्च्युनिटी है, जहाँ जातीय सर्वे और बढ़ती जागरूकता नए सामाजिक संरेखण की संभावना पैदा कर रही थी।

जाति अब भी सत्ता की मुद्रा बनी हुई है।
जैसे-जैसे बिहार चुनाव की ओर बढ़ रहा है, टिकट वितरण ने एक बार फिर दिखा दिया है कि राजनीति में जाति अब भी सबसे प्रभावशाली तत्व है। भाजपा और राजद दोनों ने अपने पारंपरिक आधार को सुरक्षित रखने के लिए वही पुराना स्क्रिप्ट अपनाया है, समुदाय विशेष को लाभ देकर सत्ता का संतुलन बनाए रखना। मगर बदलते जनसांख्यिकीय परिदृश्य में, यह सीमित दृष्टिकोण भविष्य की राजनीति के लिए पर्याप्त नहीं लगता।

अब सवाल यह नहीं है कि टिकट किसे मिला, बल्कि यह है कि क्या पार्टियां बिहार की वास्तविक आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने को तैयार हैं?
राजनीति की अगली सीमा सीटों की संख्या नहीं, बल्कि समावेशी परिवर्तन होनी चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता, 2025 की “जातीय गणित” 2030 की “जातीय थकान” में बदल सकती है।

लेखक परिचय:
डॉ. कुमार राकेश, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, राजनीतिक विश्लेषक और प्रसारक हैं। लगभग 35 वर्षों से पत्रकारिता एवं लेखन में सक्रिय, उन्होंने भारत के कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में कार्य किया है। वे देश में 9 टीवी समाचार चैनलों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं।
अब तक वे 50 से अधिक देशों की यात्रा कर विभिन्न विषयों पर रिपोर्टिंग और लेखन कर चुके हैं। डॉ. राकेश को मीडिया और संचार के क्षेत्र में भारत एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं। वर्तमान में वे ग्लोबल गवर्नेंस न्यूज़ ग्रुप एवं समग्र भारत के संपादकीय अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं।

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