तेजस्वी यादव का ₹30,000 वादा: बिहार की जनता के साथ चुनावी छल

'हर महिला को 30,000 रुपये' का वादा और वास्तविकता

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पूनम शर्मा
बिहार की राजनीति में लोकलुभावन घोषणाओं का इतिहास पुराना है। यहाँ चुनावों के समय नेताओं के द्वारा किए जाने वाले बड़े-बड़े वादे सुनने में भले ही आकर्षक लगें, लेकिन उनके पीछे की वास्तविकता अक्सर जनता के लिए निराशाजनक साबित होती है। तेजस्वी यादव का हालिया चुनावी वादा — बिहार की हर महिला को ₹30,000 देने का — उसी पुरानी राजनीति की एक नई और खतरनाक कड़ी है। यह वादा न केवल वित्तीय रूप से असंभव है, बल्कि सीधे तौर पर जनता के साथ धोखा और छल का प्रतीक है।

1. सुनने में मीठा, पर सच्चाई में कड़वा

राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव ने ‘माई-बहिन मान योजना’ के तहत बिहार की हर महिला को ₹30,000 देने की घोषणा की है। यह घोषणा चुनावों से ठीक पहले की गई, ताकि महिलाएँ और उनके परिवार सीधे प्रभावित हों।
लेकिन क्या वास्तव में बिहार का आर्थिक ढांचा इतनी बड़ी योजना का भार उठा सकता है?

बिहार में कुल महिला आबादी लगभग 6.15 करोड़ है। यदि सभी महिलाओं को ₹30,000 देने की कोशिश की जाए, तो खर्च होगा:

रुपये
61,503,302×30,000=1,845,099,060,000रुपये

यानि 1.845 ट्रिलियन रुपये, यानी लगभग 1 लाख 84 हजार करोड़ रुपये।

बिहार का अनुमानित वार्षिक बजट (2025-26) लगभग ₹3.16 लाख करोड़ है। इसका अर्थ है कि सिर्फ इस योजना पर राज्य का लगभग 60% बजट खर्च होना पड़ेगा। यह केवल अव्यावहारिक ही नहीं, बल्कि संपूर्ण राज्य की वित्तीय स्थिरता के लिए खतरा है।

2. बिहार की अर्थव्यवस्था: क्या वह इतना बड़ा बोझ सह सकती है ?

बिहार भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। राज्य का प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे कम है और इसका अधिकांश राजस्व केंद्रीय सहायता पर निर्भर है। राज्य का खुद का कर राजस्व लगभग ₹59,000 करोड़ है।

इतनी विशाल योजना लागू करने के लिए बिहार को अपना वार्षिक राजस्व 30 गुना बढ़ाना होगा, जो किसी भी आर्थिक दृष्टि से असंभव है।

राज्य पहले ही 3% राजकोषीय घाटे के साथ चल रहा है। यदि यह वादा लागू होता है, तो राजकोषीय घाटा बढ़कर 15% से ऊपर जा सकता है। इसका सीधा असर होगा — राज्य की वित्तीय विश्वसनीयता का ध्वस्त होना।

साफ है, यह योजना न केवल वित्तीय रूप से टिकाऊ नहीं है, बल्कि पूरी तरह व्यावहारिकता से बाहर है।

3. मतदाताओं को भ्रमित करने की रणनीति

तेजस्वी यादव का यह वादा किसी आर्थिक नीति का परिणाम नहीं है। यह सीधे तौर पर मतदाताओं की भावनाओं से खेलने की कोशिश है। बिहार की महिलाएँ लंबे समय से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में हैं। ऐसे में ₹30,000 की राशि सुनकर उनके मन में आशा जागना स्वाभाविक है।

लेकिन यह योजना केवल चुनावी लालच का जाल है। यह जनता की गरीबी और सामाजिक कमजोरियों का लाभ उठाकर वोट बैंक बनाने की चाल है।

लोकलुभावन वादों से जनता को तुरंत मिलने वाले लाभ का लालच देकर वोट हासिल करना बिहार की राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुकी है। तेजस्वी यादव की यह घोषणा उसी पुरानी रणनीति का हिस्सा है, जो लोगों की आर्थिक जरूरतों को राजनीतिक लाभ में बदल देती है।

4. अगर सच में लागू किया जाए तो परिणाम क्या होंगे?

मान लीजिए कि किसी तरह यह योजना लागू हो भी जाए। तब भी बिहार की विकास यात्रा पर इसका क्या असर पड़ेगा?

अन्य योजनाओं में कटौती: ₹1.8 ट्रिलियन की व्यवस्था के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और कृषि जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं में भारी कटौती करनी पड़ेगी।

कर्ज में डूबेगा राज्य: इतना बड़ा नकद वितरण राज्य को भारी कर्ज में डुबो देगा, जिससे आने वाले वर्षों में विकास बाधित होगा।

महँगाई और आर्थिक असंतुलन: नकदी का अचानक प्रवाह उत्पादन के बिना बाजार में महँगाई बढ़ाएगा।

राजनीतिक लाभ, आर्थिक नुकसान: योजना केवल वोटों के लिए लाभकारी होगी, लेकिन इसका मूल्य आने वाली पीढ़ियों को चुकाना पड़ेगा।

इस प्रकार यह वादा सिर्फ चुनावी लाभ के लिए है, न कि बिहार की वास्तविक समस्याओं के समाधान के लिए।

5. महिलाओं का सशक्तिकरण या राजनीतिक शोषण?

तेजस्वी यादव का दावा है कि यह योजना महिलाओं को “आर्थिक रूप से सशक्त” बनाएगी। लेकिन सशक्तिकरण केवल पैसों का वितरण नहीं होता। असली सशक्तिकरण तब होता है, जब महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा के अवसर मिलें।

₹30,000 देने से कोई महिला आत्मनिर्भर नहीं हो सकती। यह केवल क्षणिक राहत है, जो अगले चुनाव तक भुला दी जाएगी।

इस योजना की मानसिकता यह दिखाती है कि नेताओं के लिए महिलाएँ वोट बैंक से अधिक नहीं, और उन्हें पैसे के लालच से प्रभावित किया जा सकता है। यह महिलाओं की गरिमा और बुद्धिमत्ता का अपमान है।

6. लोकतंत्र और नैतिकता पर सवाल

लोकतंत्र में चुनाव विचारों की लड़ाई होना चाहिए, न कि पैसे और लालच की। जब कोई नेता आर्थिक रूप से असंभव वादे करता है, तो वह सिर्फ जनता को भ्रमित नहीं करता, बल्कि चुनाव की नैतिकता को भी कमजोर करता है।

ऐसे वादे लोकतंत्र को “बाज़ार” में बदल देते हैं, जहाँ वोट एक वस्तु बन जाता है और जनता खरीदार।

निर्वाचन आयोग को ऐसे भ्रामक वादों पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए। जनता को भी जागरूक होकर इन प्रलोभनों से बचना होगा।

7. बिहार को चाहिए विकास, न कि वादों का सपना

बिहार का वास्तविक विकास केवल ठोस नीतियों, निवेश और रोजगार से संभव है। राज्य को शिक्षा सुधार, औद्योगिक विकास, कृषि नवाचार और महिला उद्यमिता पर काम करना चाहिए।

₹30,000 का वादा महिलाओं को स्थायी रूप से आत्मनिर्भर नहीं बनाएगा, बल्कि उन्हें सरकारी दान पर निर्भर बनाएगा।

तेजस्वी यादव को यदि सच में महिलाओं की चिंता है, तो उन्हें ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिए जो लंबे समय तक आर्थिक अवसर और सुरक्षा प्रदान करें, न कि केवल चुनावी जाल में फँसाने वाली राशि का प्रचार।

निष्कर्ष: वादों की राजनीति नहीं, ईमानदारी चाहिए

तेजस्वी यादव का ₹30,000 वादा न केवल आर्थिक रूप से असंभव है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी भ्रामक और धोखेबाज है। यह बिहार की जनता की आकांक्षाओं के साथ खेलता है।

बिहार के मतदाताओं को समझना होगा कि जो नेता सत्ता पाने के लिए असंभव वादे करता है, वह सत्ता में आने के बाद केवल बहाने देगा, समाधान नहीं।

यह समय है कि बिहार की जनता जागे और “₹30,000 के सपने” के बजाय विकास के सच्चे रास्ते को चुने।

लोकतंत्र केवल वोट देने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह अपने भविष्य और सरकार के चयन का माध्यम है। ऐसे वादों के पीछे न फँसें और सच्चाई पर ध्यान दें।

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