पोर्न बैन की याचिका पर SC ने नेपाल का दिया उदाहरण
"प्रतिबंध लगाने पर वहाँ क्या हुआ, देखा ना?", कोर्ट ने सामाजिक प्रभाव पर विचार को ज़रूरी बताया
- सुप्रीम कोर्ट ने देश में पोर्नोग्राफी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग वाली याचिका पर तत्काल कोई आदेश देने से इनकार कर दिया है।
- निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने मामले की सुनवाई के दौरान नेपाल का उदाहरण दिया और Gen Z विरोध प्रदर्शनों का ज़िक्र किया।
- कोर्ट ने कहा कि यह मामला जटिल और सामाजिक प्रभाव वाला है, इसलिए जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं लिया जा सकता।
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 03 नवंबर: देश में पोर्नोग्राफी और बाल यौन शोषण सामग्री (CSAM) पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग वाली एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे की जटिल प्रकृति को रेखांकित किया। जस्टिस बी. आर. गवई की अगुवाई वाली पीठ ने सोमवार को याचिकाकर्ता से पूछा कि क्या उन्होंने देखा कि नेपाल में प्रतिबंध लगाने पर क्या हुआ।
कोर्ट का इशारा नेपाल में हाल ही में हुए जेन जेड (Gen Z) के विरोध प्रदर्शनों की ओर था, जो यह दर्शाता है कि किसी भी प्रतिबंध के सामाजिक और व्यवहारिक असर पर गहराई से विचार करना कितना आवश्यक है। न्यायालय ने कहा कि किसी भी प्रतिबंध से पहले उसके सामाजिक और कानूनी परिणामों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता जैसे संवैधानिक पहलुओं को भी छूता है।
याचिकाकर्ता की दलीलें और आंकड़े
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में डिजिटलीकरण के कारण अश्लील सामग्री की आसान उपलब्धता पर गहरी चिंता जताई। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इंटरनेट पर सब कुछ एक क्लिक पर उपलब्ध है, जिससे नाबालिगों के लिए यह सामग्री तक पहुंचना आसान हो गया है।
याचिका में चौंकाने वाले आंकड़े पेश किए गए, जिनमें दावा किया गया कि भारत में 20 करोड़ से अधिक अश्लील वीडियो या क्लिप मौजूद हैं, जिनमें बाल यौन सामग्री भी शामिल है, और जो बिक्री के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि सरकार ने खुद स्वीकार किया है कि इंटरनेट पर अश्लील सामग्री को बढ़ावा देने वाली अरबों साइटें उपलब्ध हैं।
याचिकाकर्ता ने केंद्र सरकार से मांग की थी कि वह पोर्नोग्राफी पर नियंत्रण के लिए एक राष्ट्रीय नीति और ठोस कार्ययोजना तैयार करे, खासकर नाबालिगों को इस समस्या से बचाने के लिए। उन्होंने यह भी बताया कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69ए के तहत सरकार के पास ऐसी वेबसाइटों को ब्लॉक करने का अधिकार पहले से है, लेकिन इसका प्रभावी उपयोग नहीं हो रहा है।
कोर्ट ने नहीं दिया कोई अंतरिम आदेश
कोर्ट ने याचिका में उठाए गए बाल यौन शोषण के मुद्दे की गंभीरता को स्वीकार किया, लेकिन फिलहाल पोर्नोग्राफी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का कोई अंतरिम आदेश देने से इनकार कर दिया। पीठ ने कहा कि इस मामले में जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं किया जा सकता। पीठ ने मामले की अगली सुनवाई 4 सप्ताह बाद निर्धारित की है, ताकि सरकार इस पर अपना विस्तृत रुख और उठाए गए कदमों की जानकारी अदालत में पेश कर सके।
यह मामला एक बार फिर इंटरनेट पर नियंत्रण, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और नागरिकों की सुरक्षा के बीच संतुलन साधने की बहस को केंद्र में ले आया है। कोर्ट का नेपाल का उदाहरण देना यह स्पष्ट करता है कि किसी भी बड़े सामाजिक-तकनीकी मुद्दे पर लिया गया फैसला, बिना व्यापक विचार-विमर्श के, अप्रत्याशित और नकारात्मक सामाजिक परिणाम दे सकता है।