किरायेदार 50 साल रहे, फिर भी घर मालिक का: सुप्रीम कोर्ट
मालिक की अनुमति वाला कब्ज़ा कभी मालिकाना हक़ नहीं देता: ऐतिहासिक फ़ैसला
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किरायेदार का कब्ज़ा, चाहे वह कितने भी वर्षों से हो, घर के मालिक के अधिकार को समाप्त नहीं कर सकता।
- कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि किरायेदारी का कब्ज़ा हमेशा मालिक की अनुमति पर आधारित होता है, इसलिए यह कभी भी प्रतिकूल कब्ज़ा (Adverse Possession) नहीं बन सकता, जिसके तहत कोई व्यक्ति संपत्ति का मालिक बन जाए।
- इस फ़ैसले से उन मकान मालिकों को बड़ी राहत मिली है, जिन्हें लंबे समय से जमे किरायेदारों को हटाने के लिए दशकों तक कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती है।
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 03 नवंबर: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में मकान मालिक और किरायेदार के संबंधों को लेकर चली आ रही एक बड़ी भ्रांति को दूर कर दिया है। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि लंबे समय तक रहने से ही किसी किरायेदार को संपत्ति का मालिकाना हक़ नहीं मिल जाता है, भले ही वह 50 या 60 वर्षों से रह रहा हो।
न्यायालय ने कहा कि किरायेदार का संपत्ति पर रहना हमेशा मालिक की इजाज़त (Permissive Possession) पर आधारित होता है। चाहे वह लिखित एग्रीमेंट हो या मौखिक, किरायेदार हमेशा मालिक की अनुमति से ही उस संपत्ति पर कब्ज़ा रखता है। यह स्थिति प्रतिकूल कब्ज़े (Adverse Possession) से बिल्कुल अलग है, जिसके तहत कोई व्यक्ति मालिक की बिना अनुमति के एक निश्चित अवधि (निजी संपत्ति के लिए 12 साल) तक कब्ज़ा बनाए रखकर उस संपत्ति पर मालिकाना हक़ का दावा कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बलवंत सिंह बनाम दौलत सिंह जैसे कई मामलों में यह सिद्धांत स्पष्ट किया है कि अनुमति से शुरू हुआ कब्ज़ा कभी भी प्रतिकूल नहीं बन सकता। यानी, जब तक किरायेदारी का संबंध स्थापित है, किरायेदार संपत्ति पर अपना मालिकाना हक़ नहीं जता सकता।
दशकों लंबी कानूनी लड़ाई को विराम
इस फ़ैसले का सबसे बड़ा असर उन हज़ारों मकान मालिकों पर होगा जो रेंट कंट्रोल एक्ट के प्रावधानों और किरायेदार के लंबे कब्ज़े के कारण अपनी ही संपत्ति से बेदखल महसूस कर रहे थे। कई मामलों में मकान मालिकों के परिवारों की दो पीढ़ियां लंबे समय से जमे किरायेदारों से घर खाली करवाने के लिए कोर्ट के चक्कर काटते हुए खप जाती थीं।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही एक मामले में 60 वर्ष बाद किराएदार से घर खाली करवाने का आदेश दिया, जहाँ मकान मालिक के परिवार की दो पीढ़ियां इस कानूनी लड़ाई में उलझी रहीं। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि मकान मालिक की मृत्यु हो जाती है, तो उसके कानूनी वारिस भी अपनी ज़रूरत के आधार पर किरायेदार को हटाने की मांग को आगे बढ़ा सकते हैं।
यह फ़ैसला कानून के संतुलन को भी दर्शाता है। कोर्ट ने कहा है कि किरायेदार की सुरक्षा ज़रूरी है, लेकिन मकान मालिक की न्यायिक रक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यदि मकान मालिक को खुद या अपने परिवार के लिए संपत्ति की सच्ची आवश्यकता है, तो कोर्ट उसके पक्ष में फ़ैसला सुनाने से पीछे नहीं हटेगा।
‘किराए के नाम पर कब्ज़ा अब नहीं चलेगा’
न्यायालय के इस स्पष्ट रुख से अब “हम तो पीढ़ियों से रह रहे हैं” वाला बहाना नहीं चलेगा। यह फ़ैसला किरायेदारी को एक अस्थायी व्यवस्था के रूप में मजबूत करता है, न कि मालिकाना हक़ प्राप्त करने के एक माध्यम के रूप में।
यह निर्णय न केवल मकान मालिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि किरायेदारी के संबंध में कानून की भावना बनी रहे—”घर मालिक का, किराया तुम्हारा।” यह कदम रियल एस्टेट क्षेत्र में भी स्पष्टता लाएगा, जहाँ लंबे समय से क़ानूनी उलझनों के कारण मालिक अपनी संपत्तियों को किराए पर देने से कतराते थे।