बिहारियों का पलायन: नियति या मजबूरी? छठ पर घर वापसी और फिर लौटना
आस्था के महापर्व छठ की अनूठी भावना में लिपटा पलायन का चक्र और खाली ट्रेन की व्यथा
अशोक कुमार
हर साल दीपावली खत्म होते ही, देश के कोने-कोने में, चाहे वह सूरत हो या नोएडा, मुंबई हो या बेंगलुरु, एक अजीब सी हलचल शुरू हो जाती है। यह हलचल है प्रवासी बिहारियों की अपने घर, अपनी मिट्टी की ओर लौटने की। वे अपनी ट्रेनों की खिड़कियों से झाँकते हुए उन हजारों किलोमीटर के सफर को तय करते हैं, जो उन्हें कुछ दिनों के लिए उनकी बड़की माई या अपनी माई की छठ पूजा में शामिल होने का मौका देता है। वे लौट रहे हैं छपरा, मिथिला, मुजफ्फरपुर और गया, जहाँ किसी की प्रमोशन की मन्नत है, तो किसी की सूरत में ज़मीन खरीदने की इच्छा। यह घर वापसी केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि एक भावनात्मक अनुष्ठान है, जो पलायन की कड़वी नियति में एक मीठा पड़ाव है।
बिहारियों की जिंदगी का यह चक्र विडंबनाओं से भरा है। एक तरफ छठ जैसा महापर्व है, जो आस्था, शुद्धता और परिवार के मिलन का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ पलायन की वह कटु सच्चाई, जिसने इस समुदाय को अपनी जमीन से दूर फेंक दिया है।
पेट का बोझ और दिल का दर्द
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बिहार में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जिसका कम से कम एक सदस्य ‘दो वक्त की रोटी’ कमाने के लिए प्रदेश के बाहर न गया हो। यह पलायन केवल गरीबी या बेरोजगारी तक सीमित नहीं रहा; यह अब अमीर और गरीब, मंत्री और संतरी, कलेक्टर और चपरासी, पांडेय जी और राम जी – हर वर्ग की नियति बन चुका है।
जब कोई बिहारी अपनी ‘नई मिट्टी’ में कमाने जाता है, तो वहाँ का हाकिम बनने में उसे कितना संघर्ष करना पड़ता है, यह केवल उसकी आत्मा और नसीब को पता होता है। ‘नई मिट्टी’ इतनी आसानी से किसी को स्वीकार नहीं करती। एक पीढ़ी खुद को ‘स्वाहा’ कर देती है—पल-पल, तिल-तिल जलकर—ताकि उसकी अगली पीढ़ी को उस नई जगह पर थोड़ी ‘पनपने’ की जगह मिल सके। यह वह अदृश्य कष्ट है, जिसे कोई देख नहीं पाता, सिवाय उस व्यक्ति के जो ट्रेन की खिड़की से अपनी छूटती मिट्टी को नम आँखों से देखता है।
कष्ट यह नहीं कि हम कमा रहे हैं, कष्ट यह है कि हमें कमाना अपनी जमीन छोड़कर पड़ रहा है। ‘पेट दिल से भारी है और परिस्थिति सब पर भारी है।’ यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे हर बिहारी जूझता है।
राजनीतिक उपेक्षा और विकास की विफलता
बिहार के इस पलायन की नियति पर दशकों से हमारे राजनेताओं की चुप्पी भी एक नियति बन चुकी है। यह समस्या किसी नई सरकार या किसी एक नेता की देन नहीं है; यह मुगल, अंग्रेज और अब लोकतंत्र के आने के बाद भी चली आ रही व्यवस्थागत विफलता है।
अगर बिहार में मूलभूत औद्योगिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य के अवसर सृजित हुए होते, तो क्या किसी को अपनी मिट्टी, अपनी आबोहवा छोड़कर जाने की ज़रूरत पड़ती? पलायन की जड़ें केवल गरीबी में नहीं, बल्कि शासन की प्राथमिकताओं में हैं। जब शिक्षा और स्वास्थ्य का स्तर गिरता है, जब स्थानीय उद्योग पनप नहीं पाते और जब कानून-व्यवस्था की स्थिति अस्थिर होती है, तो लोगों को मजबूरन बाहर का रुख करना पड़ता है।
आजकल वोट भी हैं। गाँव-घर के लोग जिसे कहेंगे, उसी को वोट दिया जाएगा। छठ के बाद कुछ दिन रुकना होगा, लेकिन नियति को कौन रोक पाया है? यह सवाल हर बिहारी के मन में गूँजता है। यह दुखद है कि जिस बिहार ने ज्ञान और शक्ति का केंद्र बनकर दुनिया को राह दिखाई, वह आज अपने ही लोगों को दो वक्त की रोटी के लिए बाहर धकेल रहा है।
मॉरीशस का उदाहरण: जब नियति ने बनाई राजा
प्रवासी बिहारियों का एक ऐतिहासिक उदाहरण हमें मॉरीशस में मिलता है, जहाँ आज भी एक बड़ी आबादी भोजपुरी बोलती है। हमारे पूर्वज वहाँ मजदूर बनकर गए थे। उन्हें शायद पता नहीं होगा कि नियति उनके लिए क्या लिख रही थी। वहाँ की मिट्टी ने उन्हें अंततः राजा बना दिया। उन्होंने अपनी मेहनत, संस्कृति और दृढ़ता से एक नई पहचान स्थापित की।
सवाल यह है: हम कब अपनी मिट्टी में राजा बनेंगे? हमें बाहर की मिट्टी पर स्वाहा होने की बजाय, अपनी मातृभूमि को ही इतना समृद्ध क्यों नहीं कर पाते कि पलायन केवल एक विकल्प रहे, नियति नहीं? यह प्रश्न सरकारों से नहीं, बल्कि सामूहिक इच्छाशक्ति से जुड़ा है।
पलायन की यह नियति केवल छठ, होली और ईद पर घर आने और फिर उसी ट्रेन से वापस लौट जाने के चक्र को दोहराती है। यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा, जब तक बिहार रोजगार और विकास का एक मजबूत केंद्र नहीं बन जाता।
पलायन का भावनात्मक और सामाजिक मूल्य
पलायन का कष्ट केवल आर्थिक नहीं होता; यह भावनात्मक और सामाजिक भी होता है। परिवार टूटते हैं, बच्चे अपनी जड़ों से दूर होते हैं, और संस्कृति का क्षरण होता है। जो पीढ़ी बाहर जाकर बस जाती है, वह अपनी भाषा, अपने रीति-रिवाजों को अगली पीढ़ी तक पूरी तरह से हस्तांतरित नहीं कर पाती। ट्रेन में यूट्यूब पर गीत सुनते वक्त जो आँखें नम होती हैं, वह केवल घर छूटने का दर्द नहीं है, बल्कि अस्तित्व की लड़ाई और सांस्कृतिक अलगाव का भी कष्ट है।
बिहार के हर त्योहार में, हर शादी-ब्याह में, और हर दुःख-सुख में, उस प्रवासी सदस्य की अनुपस्थिति एक खालीपन छोड़ जाती है। वह अपनी माई की छठ पूजा में शामिल होकर भले ही अरग दे दे, लेकिन उसके मन में हमेशा यह कसक रहती है कि उसे हर साल वापस क्यों जाना पड़ता है।
यह लेख केवल पलायन का वर्णन नहीं है, यह बिहारियों के अदम्य साहस, उनकी अटूट आस्था और उनकी अपार क्षमता को भी दर्शाता है, जिसने उन्हें दुनिया के किसी भी कोने में पनपने की ताकत दी है। पर अब समय आ गया है कि इस क्षमता का उपयोग बिहार के भीतर हो।
बदलाव की उम्मीद
पलायन की नियति को बदलने के लिए राजनेताओं को अपनी चुप्पी तोड़नी होगी और पेट पर भारी परिस्थिति को हल्का करने के लिए ठोस विकास योजनाओं को लागू करना होगा। बिहार को शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार में आत्मनिर्भर बनना होगा।
जब तक ऐसा नहीं होता, हर साल छठ पर वही हजारों ट्रेनें वापस लौटेंगी, हमें ढो कर लाएंगी, और त्योहार के बाद उसी तरह हमें वापस सूरत, नोएडा, बॉम्बे पटक देंगी।